.

मैं सोचता हूं –
मैं कभी नहीं लिख पाऊंगा
वह कविता
जो वृक्ष के सदृश है
जिसके भूखे अधर लपलपा रहे
धरा – स्वेदन – पान को आतुर
वह वृक्ष
जो दिन और रात देखता है
ईश्वर को !
गिराता है अपने
शस्त्र – रूप पत्ते
इबादत के निमित्त !
वह वृक्ष
जो गर्मी के वसन पहनता है
ठंड की चादर ओढ़ता है
रॉबिन खग की भांति
अपने बालों को घोंसला बनाता है
उस बर्फ़ की नदी के बीच आबाद है –
वृक्ष है कविता का केंद्र
सृष्टि का सरताज है !
टिटोनी नहीं कि छूते मर जाए
फीनिक्स भी नहीं जो अंततः जल जाए
वह रॉबिन से असंख्य शान वाला है
कल्पनातीत है
वह वृक्ष
जिसके सब मुहताज हैं
ऐसे वृक्ष को ईश्वर ही रच सकता है
जो स्वयं अपने को रचता है
क्या और कोई रच सकता है
अपने आपको ?
ईश्वर को !!??
( इस कविता में अमेरिकी कवि Joyce Kilmer की कविता Trees के आंशिक भाव का समावेश है। यह कविता 1914 में  कवि के काव्य – संग्रह Trees and other Poems में प्रकाशित हुई थी। साथ ही वरिष्ठ हिन्दी कवि ज्ञान सिंह मान की कविता ” राम ! तुम्हारा नाम ” से अनुप्राणित है, जिसमें वे कहते हैं – ” राम !/ कभी तुम्हारा/ नाम/ स्वयं काव्य था।”  – ” एक वार्ता सूरज से “, पृष्ठ 17 )

कृपया टिप्पणी करें