” मेरी कविता आयास रचित नहीं, अनुभूत होती है,
दुःख-सुख, वेदना और संवेदना की प्रसूत होती है,
जब जब भी जुल्मोसितम बरपा होता है इंसानियत पर,
कवि-अंतस के बृहत शब्द-संसार में स्वतः स्फूर्त होती है। “
“‘शब्द-शब्द’ केवल संजोये हुए शब्द नहीं, अपितु बीते लगभग दो दशकों की वेदना, समवेदना, अनुभूति और मनश्चेतना की अभिव्यक्ति हैं। खट्टे-मीठे अनुभवों की आवयविक समग्रता का प्रयास है, और इससे बढ़कर आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया है, आत्म-शोधन का पड़ाव है।”…(इसी पुस्तक से)
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, कवि और विचारक डॉ रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ की पुस्तक “शब्द-शब्द” का यही सार है।
बहुत ही सुन्दर और अद्भुत कविता संग्रह है। हालांकि मेरी कविता की समझ बहुत कमजोर है और रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ का सबसे मज़बूत पक्ष उनका गद्य लेखन है जितना मैं समझता था, बावजूद इतने सुन्दर और आसान शब्दों में उन्होंने इसे गढ़ा है कि बहुत ही आसानी से दिल में उतर जाती है।
शीर्षक कविता ‘शब्द-शब्द’ से-
शब्द क्या है?
अंदर का बंधन
अनहद नाद
दिलों तक पहुंचने का तार
रूह को तर-बतर का औजार…….
शब्द मुश्किलकुशा है
जय-जय से
अजकार बनकर
ऊँ से अकबर बनकर
नमः से सलात बनकर
सुबहान से राम बनकर
ईसा का चमत्कार बनकर
यह शब्द ही तो है
जो ओंकार से
वाहे गुरू
गॉड / रूहुलकुदुस/रब से
‘अस्माउलहुस्ना’ के
99 तक पहुंच जाता है
सहस्रनाम से आगे बढ़
33 कोटि तक जाता है
फिर भी
परमात्मा के गौरव का बखान पूर्ण नहीं।
इतना लम्बा सफऱ……
फिर भी आगे बढ़ता जाता है
सततगामी है
अमर है
शाश्वत है
जीवन का उपवन है
ज्योति है
ज़िन्दगी का परवाज़ है
जिस पर किसी का अधिकार नहीं!
कोई हस्तक्षेप स्वीकार नहीं!!
और बानगी देखिये कविता ‘शब्द-परिधान’ से
‘कितना सुन्दर मुखड़ा तेरा
कितनी बेहतर भाषा है
जैसा सोचो वैसा नहीं है
कैसी यह परिभाषा है……
तुझको मैंने जब भी देखा
मिलती नई दिलासा है।
जब चाहो बदलो ख़ुद को
‘अनथक’ नहीं निराशा है।’
‘मेरे शब्द जब सुनना…..’ से कवि का आग्रह देखिये जहाँ कवि ने स्वयं को प्रस्तुत किया है या अपना परिचय दिया है।
‘एक निवेदन…
एक आग्रह…
मेरे शब्द जब सुनना
तो जरूर आना
कविता बनके आएं
या
नज़्म
गीत बनके आएं
या
ग़ज़ल
कहानी बनके आएं
या
उपन्यास
ख़बर बनके आएं
या फीचर
पत्र बनके आएं
या
अग्रलेख
मधुरस घोलें
या गरल बिखेरें
उस हाल में तो जरूर आना।
मैं नहीं चाहता
मैं जो लिखूं
तुम पढ़ न् सको
लिखना और पढना ही जीवन है –
कोई कर्म लिखता है अपने कर से
कोई मर्म लिखता है अपने क़लम से
मैं मर्म लिखता हूँ
जब महसूस करना
जब मुझे सुनना
तो जरूर आना….’
….
बस पढ़ते जाइये और खो जाइये। गोदी मीडिया के इस अमृतकाल में पत्रकार क्या है और क्या होना चाहिए, सुनियेगा
‘मैं पत्रकार हूँ
सत्य का पुजारी
कवि का सहचर
जहाँ रवि नहीं पहुंचता
मैं पहुंचता हूँ…
उस धरती में जाता हूँ
ऊबड़-खाबड़
रेतीली/पथरीली
उभदिज क्षेत्र में
जहाँ से नहीं लौटता कोई….
खो जाता हूँ
अपने आप में
लोक-युद्ध में
जनतंत्र का पहरुआ लिए।
…..
कितना भोला होता है
यह पत्रकार?
सतत पैरोकार
सतत हाहाकार
अपने जीवन को देख नहीं पाता
करता दूसरों के सपने साकार
अंधा है वह
बहरा है वह
गूंगा है वह
गाँधी के बंदरों जैसा
चल फिर नहीं सकता
चिपक गया है वाह
अपने शब्दों के साथ
खो गया है वह जंगल में
अपनी चौथी सत्ता के लिए!
…..
हताश /निराश
क्योंकि नहीं चलती उसकी सत्ता
जैसी चलनी चाहिए
तिजोरियों में क़ैद
मुट्ठीभर सौदागरों के हाथों में खेल रही
खो रही गुणवत्ता….
कहाँ जाऊं?
जहाँ बच सके वजूद मेरा
और जनता-जनार्दन का……
बड़े से बड़े सवालों में घिरा हूँ मैं
पत्रकार होकर भी
निराकार हूँ!
हे ईश्वर!
क्षमा कर देना
निराकार को
साकार कर देना!!
( पत्रकारों को आईना दिखाती रचना ‘मैं पत्रकार हूँ ‘। आपको ध्यान होगा हमास-इसराईल युद्ध में लगभग दो सौ फिलिस्तीनी पत्रकार इसराईल की बम्बारी में अपनी जान गवां बैठे उनमें कुछ अल- जजीरा चैनल के पत्रकार भी थे। और दूसरी तरफ गोदी मीडिया चैनलों के गैर जिम्मेदार पत्रकार युद्ध क्षेत्र से बहुत दूर इसराईल में किसी सुरक्षित स्थान पर फ़ौजी पोशाकों में तरह तरह के अजीब अजीब करतब दिखाते हुए और रिपोर्टिंग करते हुए विश्व समुदाय में हंसी के पात्र बने थे।)
कवि की उम्मीद जो कि सबकी उम्मीद है ‘हे राम !’ में
हे राम!
बहुत सुना है मैंने
तेरे सद राज्य का बखान
बहुतों की प्रतीक्षा
कोटि-कोटि के अरमान
हम भी हैं मुन्तज़िर
भारत के देश में…..
कब आयेगा वह युग?
वह दौर
जब शासक होंगे
आवाम के सच्चे हितैषी…..
नर-नारी होंगे एक समान
सभी करेंगे इक दूजे का सम्मान
कोई पीछे न् रह जायेगा
हर अन्याय मिट जायेगा
जन-सुखकारी शासन में
जग मंगलमय हो जायेगा
सब स्वर्गमय हो जायेगा
बोलो राम!
वह युग कब आयेगा?
….
यूँ तो कविता संग्रह ‘शब्द-शब्द’ में कुल 45 कविताएं है और सौंदर्य, इतिहास और दर्शन से लबरेज सभी बेजोड़ हैं। यहाँ सभी का जिक्र कर पाना सम्भव नहीं है फिर भी कविता राम-प्रेम, गुफावाले, गीत जो मर्सिया  बन जाता है, वो जो मेरा नहीं है,स्वागतम…. नवकाल, पिताश्री का गुलाब, वेलूर के किले से, जब वह पूछेगी,उल्लेखनीय है।
दूसरी बात जो सबसे अच्छी लगी वो है, भारत में प्रचलित सभी भाषाओं में कविता के क्रमिक विकास का इतिहास और उसके महत्वपूर्ण कवियों का संक्षिप्त परिचय जो कि मेरी समझ से शोधार्थियों के लिए बहुत काम की है।
आप भी पढ़ें और आनंद लें।
मुर्तजा ख़ान

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