हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठ कवि मोहन सपरा का काव्य – संग्रह ” रक्तबीज आदमी है ” पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ | इसमें 28 बीज कविताएं हैं | वास्तव में ये सभी कविताएं हिंदी कविता में प्रयोगवादी धरातल फ़राहम करती हैं और ” तार सप्तक ” व ” प्रतीक ” के प्रयासों को नव विस्तार देती हैं | इनमें नए सत्यों और नई वास्तविकताओं का जीवित बोध भी है | मनुष्य की उद्दाम भावनाओं का नवोन्मेष भी , जिनमें प्रश्न संलग्न है , जो कवि की बौद्धिकता का सतत परिचायक है | नई कविता का नव प्रयोग है।
इस पुस्तक की कविताओं की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसकी कविताओं में बिंबों को नवानुकूल माध्यम का आधार बनाकर प्रयोगवादी सांचे में ढालने का प्रयास किया गया है | साथ ही सर्वबोधगम्यता प्रेषण का ख़याल रखकर इन्हें पर्याप्त काव्य रस से परिपूर्ण नव भावबोध प्रदान किया गया है |
आज का मानव कितना प्रगतिशील और खोजी है कि हर सीमा और मर्यादा को भेदने के लिए तत्पर रहता है | जीवन कैसा भी हो , उस पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता | वह अपनी विशेष धुन में मगन है –
सच , मुझे देखो !
मेरे धर्म और कर्म को देखो
मैं हर रोज़
मानव – अमानव की नई परिभाषा
गढ़ने की फ़िराक़ में हूँ |
[ ” मुझे देखो ” ]
कवि अति सावधान है , क्योंकि सावधानी ही बचाव है | ठूंठों ने ही इस मुद्रा में आने के लिए विवश किया है –
इधर जो है
ठूंठ
देख भर रहा हूँ
भर भराया – सा |
इधर जो है
बाँटता है
पानी तक को काटता है |
[ ” इधर जो है ” ]
 लेकिन उधर जीवन है , आशा है , जिजीविषा है –
” उधर जो है
बहुत कुछ कहता है
कुछ लाने को | “
फिर भी इक सीमा – रेखा है | कवि के मत में समय आने पर ही संभव की प्राप्ति है | ऐसे में व्यर्थ हाहाकार क्यों ?
” मौसम तो नहीं
बहुत कुछ पाने का
चीत्कार क्यों ? “
” रक्तबीज आदमी है ” का कवि युग – जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाता है। समाज के गलित को मिटाने के प्रति उसका अटूट विश्वास और आह्वान है | इसीलिए जीवटता का आलम तो हर पग पर है | वह कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अँधेरों को चीरने का आह्वान करता है –
अब वक़्त है
जब आपको
समय का मसीहा बनना है
प्रकाश को नहीं
अँधेरे में से रास्ता ढूँढना है , ढूंढो …..
फिर से उग आई झाड़ियों को
काटना है – छाँटना है
नई फ़सल के लिए
ज़मीन तैयार करनी है , करो |
[ ” अब वक़्त है ” ]
 समीक्ष्य पुस्तक कवि के अनुभवों का निचोड़ जान पड़ती है | भाषा , बिंब, प्रतीक आदि में इतनी कसावट और प्रांजलता है कि बार – बार प्रशंसा के ही शब्द निकलते हैं | इनमें कवि बार – बार कवि साक्षात् होता है | साक्षात् हो जगत को निहारता है और ‘ युद्ध ‘ देखता रहता है , नाना रूपों और शक्लों में – ” साक्षात् मैं हूँ – देखता हूँ / रोज़ – रोज़ / दिन और रात का युद्ध /
बिना किसी शोर / फिर – फिर होती भोर | ‘ [ पृ. 38 ]
” युद्ध कहाँ नहीं ? / नदी में / सागर में / पहाड़ों से गिरते झरनों में / पहचान तो करो | ” [ पृ. 63 ]
कवि उनकी भी खोज करता है , जो मिथ्याचार और कुमार्गगमन के शिकार हैं | वह कौन है … जो बाप के मरने पर जश्न मनाता है ? ” देश को चाहिए / देश / यह साज़िश कौन रच रहा / चेहरे से / शक्ल नोच रहा | ” ….. आख़िर यह कौन है जो तूफ़ानी नदी में ज़हर मिलाता है ?
कविता का अनहद होना स्वाभाविक है | साथ में कविता के लिए संवाद आवश्यक है , चाहे वह किसी भी रूप में हो | ज़ाहिर है , कविता का रूप विभिन्न सूरतों और आयामों में निखरता है – ” सच, एकदम सच !/ कविता के लिए / मेरे पास / और , और बहुत कुछ है/ जैसे तुम / तुमसे टकरा सकती है कविता / कविता दनदना उठेगी | ” सचमुच , पूरी पुस्तक में कविता की बहार आई हुई है ! मुझे पूरी आशा है कि यह पुस्तक कवि के अनेक काव्य – संग्रहों में अपना विशिष्ट स्थान बनाएगी |
आस्था प्रकाशन, जालंधर ,नई दिल्ली , यू के से प्रकाशित इस 72 पृष्ठीय पुस्तक की छपाई अति सुंदर और मनोहारी है | प्रूफ शोधन उत्तम है , किन्तु उर्दू के शब्दों पर नुक़्ते का कहीं – कहीं अभाव खटकता है | कवि को अशेष मंगलकामनाएं और उनकी शुद्ध साहित्यिकता को बारंबार
नमन !
समीक्षक – डॉ. रामपाल श्रीवास्तव

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