” पढ़े जाते हुए शब्द ” हिंदी के यशस्वी कवि दिलजीत दिव्यांशु की चयनित कविताओं का संग्रह है, जिसका संपादन किया है वरिष्ठ कवि एवं लेखक बलवेंद्र सिंह ने | दिलजीत दिव्यांशु मानवीय संवेदना के कवि है, जिन्होंने जीवन को इंतिहाई बारीकी से समझा है और उसके मर्म को अपने सधे हुए शब्दों में सफलतापूर्वक उकेरा है | कवि के कृतित्व के समूचे वैविध्य में कवि की संवेदना चरितार्थ और उजागर हुई है | सद्यः प्रकाशित समीक्ष्य कृति में कवि की रचनाओं के नए- नए आयाम मिलते हैं, जो कवि की सोच को व्यापक आधार प्रदान करते हैं और उसके विराट व्यक्तित्व का भी बोध कराते हैं | देखिए चंद बानगियाँ –

‘ नचिकेता के पत्र : वाजश्रवा के नाम ‘ बड़ी दिलचस्प और अर्थवत्तापूर्ण रचना है | नचिकेता दुनिया  पहला जिज्ञासु और साधक है | उसे जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया, तो उसने पिता वाजश्रवा से उनके अतीत कर्मों पर सवाल किए | कवि ने इन सवालों को साहित्य विशेषकर कविता के शिल्प में बख़ूबी ढाला है | वाजश्रवा और नचिकेता की कथा का आरंभ कठोपनिषद से होकर अन्य ग्रंथों में फैलता है | कथानुसार, वाजश्रवा ने एक बार अपना सब कुछ दक्षिणा में दे डाला था | इस क़दम पर नचिकेता ने अपने पिताश्री से पूछा कि आप मुझे किसको प्रदान करते हैं ?

तब वाजश्रवा ने ग़ुस्से में आकर कह दिया, ‘ मृत्यु को |’ इस नचिकेता मृत्यु [ यमराज ] के पास चला गया | वहाँ तीन दिनों तक निराहार रहकर उससे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया | ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के बाद उसे जो प्रज्ञा-बोध हुआ, उसके आधार पर नचिकेता अपने पिता को पत्र में लिखता है –

‘ इसलिए 
उचित यही है पिता 
आज तुम मेरे अनुभवों को 
नवीन भले ही कहो 
पर सत्य से रीते न कहो 
तुमने मुझे सत्य कहने के लिए 
और अधिक कर दिया है सशक्त !
सो पिता !
आज सत्य स्वीकार करके 
दस्यु चाल को पहचानो 
मेरी और तुम्हारी सोच में 
जो भेद उचित है 
उसे पहचानो !’  
कवि इंसानियत के अत्याचार,शोषण और दमन के सर्वथा ख़िलाफ़ है | इसलिए वह दमित का स्वर बन जाना अपना फ़र्ज़ समझता है | ‘ उस्ताद मिर्ची ‘ शोषणकारी तंत्र की जीवंतता बयान करती है | यह वह स्थिति होती है, जब आम आदमी परतंत्र महसूस करने लगता है और कवि अपनी संवेदनीयता को –
‘ यों वह स्वयं 
एक सस्ते ग़ल्ले की दूकान पर 
मजूरी करता है 
जहाँ 
मालिक की बढ़ती हुई 
तोंद को भरने 
और अपनी 
रोज़ी-रोटी का मसला 
हल करने के लिए 
तकड़ी के काँटे पर ठेंगा मारता है !
वह मानता है 
कि उस समय 
तकड़ी का काँटा  
उसकी आँतों में 
कितनी ही बार 
गहराता जाता है !’ 
कवि बदलाव को क्षरण के रूप में देखता है | आज मानवीय मूल्यों का इतना ह्रास हो चुका कि पवित्र वाणियाँ भी प्रभावित नज़र आती हैं | इस विषम परिस्थिति में कवि की सर्जनात्मक शक्ति नए रूप में दिखाई पड़ती है –
‘ शब्द, जो कभी उजले थे 
शब्द, जो कभी पवित्र थे 
शब्द, जो कभी मोहक थे 
शब्द, जो कभी प्यारे थे 
आज,
वे शब्द सभी मैले हो गए हैं !
संतों, गुरुओं, आप्त-पुरुषों की वाणी 
खो चुकी है अर्थ आज |’
समीक्ष्य 156 पृष्ठीय पुस्तक में दिलजीत दिव्यांशु की कुल पचास कविताएं संकलित हैं, जिनमें ‘ गुलाब, चमेली और कैक्टस ‘ शीर्षक कविता हिंदी कविता  इतिहास में अन्यतम महत्व की अधिकारिणी है | इसकी अभिव्यंजना चमत्कृत कर देने वाली है | गुलाब, चमेली और कैक्टस मानव जीवन के स्थितियाँ हैं, जो संत्रास के यथार्थ को प्रकट करने का दम-ख़म रखते हैं | कवि के शब्दों में –
‘ मैंने तो नहीं चाहा था –
– कि 
किसी बिगड़े रईस के 
बटनहोल की शोभा को 
मेरी सख़्त हथेली पर 
टिका दो तुम !
लेकिन तुमने यह सब क्या किया 
और मैंने क्या पाया ?
मेरी सख़्त हथेली 
झुलस-सी गई है 
अंगार-से लाल गुलाब की आग से 
गड़-से रहे हैं 
रईसी गुलाब के शूल 
निरंतर हथेली में मेरी 
और मेरे हृदय-प्रदेश तक को 
छलनी किए जा रहे हैं !’
‘ सत्य की तलाश,’ ‘ निरंतर चलनेवाली लड़ाई,’ नंगू पनवाड़ी,’ ‘ शब्दों से कविता तक,’ ‘ देश,’ ‘ मुझे एक बेटी चाहिए,’ ‘ श्वेत छिपकली,’ और ‘ जीवन जिया ‘ शीर्षक कविताएँ बेहद दमदार और मानीख़ेज़ हैं | पुस्तक का संपादन उत्तम है | प्रूफ की ग़लतियाँ खटक पैदा करती हैं, जो ‘ वटवृक्ष ‘ को झट से ‘ बटवृक्ष ‘ बना देती हैं और बनाती ही जाती हैं ! ‘ धृष्टता ‘ और ‘ धृष्ट ‘ रूप बदलकर ‘ धृष्ठता ‘ एवं ‘ धृष्ठ ‘ बन जाते हैं ! फिर ऐसे और भी प्रयोग हो जाते हैं ! चंद्र बिंदु के प्रयोग का भी यही आलम है | कहीं लगा तो कहीं लगा ही नहीं ! सब पर प्रूफ की भारी मार पड़ी है ! नुक़्ते लगाने में असावधानी बार-बार नज़र आती है | उर्दूदार नुक़्ते लगाए ही न जाएँ, तो चल सकता है, किन्तु एक जगह लगे और दूसरी जगह नदारद रहे, तो उचित नहीं | 
कितना भी संभालिए, मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह बताता है कि प्रूफ रीडिंग में चूक हो ही जाती है | मुझे याद है कि एक पुस्तक की  पाँच सज्जनों ने प्रूफ रीडिंग की, किन्तु उच्छिष्ट रह गए ! लेकिन इस क़िस्म के अवशेष जितने साफ़ हो जाएँ, अच्छा ही है | पुस्तक का काग़ज़ उम्दा है और छपाई भी | इस श्रेय प्रकाशक बिंब-प्रतिबिंब पब्लिकेशंस, फगवाड़ा को जाता है | 
इतनी उत्कृष्ट और स्तरीय सर्जना की कवि की कोशिश सराहनीय और वंदनीय है ही | आज दिलजीत दिव्यांशु जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी बेशक़ीमती धरोहर विद्यमान है, जो साहित्य जगत के लिए संतोष का विषय है | इसे संभव बनाया है अग्रणी रचनाकार बलवेंद्र सिंह जी ने | एतदर्थ उनका आभार, अनेकानेक शुभकामनाएँ | 
– Dr. R.P.Srivastava
Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad [ Portal ]

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