पिछले कई दशकों से साहित्य-साधना में लगे पंजाब के चर्चित कवि, आलोचक एवं चिंतक राकेश प्रेम की कविता-संग्रह ” कविता में जीते हुए ” हस्तगत हुआ | यह मेरे लिए किसी अमूल्य उपहार से कम नहीं है | जीवन के तमाम अनुभवों और अनुभूतियों के साथ  कविता में कैसे जिया जाता है, यह जानने और समझने का मुझे जो सुयोग प्राप्त हुआ, उसके लिए मैं भाई राकेश प्रेम का बहुत आभारी हूँ | इसमें एक ओर संचेतना और संबोध का असीम संसार दृश्यमान है, वहीं दूसरी ओर अथाह विद्यावारिधि का अपूर्व संगम है | इसलिए मैं आपको हिंदी का फ़्रेडरिक मिस्ट्रेल कहना पसंद करूँगा, क्योंकि कवि की कल्पना का बृहत्तर कैनवास और उद्बोध फ्रांसीसी कवि जैसा लगता है | अलबत्ता ” कविता में जीते हुए ” का कवि भारतीय संस्कार, संस्कृति और परिवेश में जीकर उनमें से भावप्रवण अभिव्यक्ति के मोती चुनता है | इस प्रकार यह काव्य-संग्रह जटिल यथार्थ का दस्तावेज़ बन जाता है, जिसमें विविधता के साथ पर्याप्त ऊँचाई भी है |
 112 पृष्ठों पर आधारित इस पुस्तक का प्रकाशन क़लमकार पब्लिशर्स प्रा. लि., नई दिल्ली से 2023 में हुआ है | प्रस्तुत संग्रह में कुल 58 कविताएँ हैं | सभी मुक्त छंद अर्थात गद्य-काव्य में हैं | कभी हिंदी में ऐसी कविताओं का सिरे से चलन नहीं था | जब निराला ने इसे शुरू किया,तो उस समय उसे किसी ने कविता तस्लीम ही नहीं किया था | इस सत्य के बावजूद कि अंग्रेज़ी में यह बहुत पहले शुरू हो चुका था और बांग्ला साहित्य इससे किसी क़दर आशना हो चुका था | फिर भी यह सच है कि हिंदी में इसे परंपरा की शक्ल लेने में कड़े व्यवधानों का जमकर सामना करना पड़ा | आज यह परिपाटी पुष्ट और और पुख़्ता हो चुकी है, फिर भी दुर्भाग्य से अब भी देश में कई हिंदी क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ इसे काव्य नहीं माना जाता है | इसमें लिखनेवाले घुट्टी के नीचे नहीं उतरते !
इस दुश्वार घाटी से कई नामचीन कवियों को गुज़रना पड़ा | अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों को भी इस जटिलता का सामना करना पड़ा | राष्ट्रकवि गोविंद पै, जो कन्नड़ भाषा के महान कवि थे, जब मुक्त काव्य अर्थात प्रास मुक्त रचना करने लगे, तो उनका घोर विरोध हुआ | आख़िरकार उन्होंने सिद्धहस्तता से यह सिद्ध कर दिया कि जिसे पगडंडी भी नहीं माना जा रहा है, वह अनक़रीब ही राजपथ बननेवाली है |
” कविता में जीते हुए ” का कवि भी छंद मुक्त कविता के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हुए उसे राजमार्ग पर ले जाता है | उसकी काव्य-वस्तु और शैली के सहज होते हुए भी सशक्त अभिव्यक्ति का नज़ारा देखते ही बन पड़ता है | देखिए चंद उदाहरण –
” भीड़ का साम्राज्य
घना है
बोलना मना है |
बातें होंगी
सब कुछ कर दिखाने की
बातें होंगी
आसमान को ज़मीन पर लाने की “
इन पंक्तियों को पढ़कर आपको दुष्यंत कुमार भी याद आए होंगे, लेकिन यह प्रस्तुति है पूर्णतः मौलिक ! आसपास के परिवेश का यथार्थ और इनमें जीते हुए जिजीविषा की तलाश कवि की अप्रतिम पहचान है | लेकिन दुर्घर्ष संघर्ष के बीच जीवन के बदलाव और नए प्रतिमान कवि को सालते रहते हैं, नुमाइशी ज़िंदगी के नक़ली रूप उसे कहीं भीतर तक कोंच जाते हैं | ‘ परिवेश ‘ शीर्षक रचना में है –
” जीवन ने घड़ लिए हैं
नए-नए मूल्य
और
मान्यताएँ
जीना सच्च
और मरना झूठ
हो गया है यहाँ !”
फिर हम अभ्यस्त हो जाते हैं इन्हीं विद्रूपताओं में जीने के लिए ! कुछ नहीं सुहाता | बस बहने लग जाते हैं उनमें आँखें बंद कर !!
” चीज़ें
धीरे-धीरे
बन जाती हैं
हमारे अस्तित्व का हिस्सा
पहचान हमारे व्यक्तित्व की !”
एक अन्य कविता [ ” आसान चीज़ें ” ] में कवि कहता है –
” आसान दिखनेवाली चीज़ों
के पीछे
फैला रहता है
एक अदृश्य तंतुजाल
जो आसान बना देता है
दृश्य को ….
और हमारी दृष्टि
चीज़ों को
सीधी चीज़ों को देखकर
हो जाती है
आनंदित !”
इंसान का अपने सहजात के प्रति विभिन्न आधारों पर भेदभाव उसकी पदेन गरिमा के विरुद्ध है | इस हक़ीक़त के बावजूद वह ऊँच-नीच का वर्गीकरण कर अपने अहं की तुष्टि करता है | कवि का मानना है कि यह  कृत्रिम और असहज है | इस प्रकार का विभेद मानवता के प्रति कलंक है | स्वयं ईश्वर भी नहीं चाहता कि ऐसा हो | कवि के शब्दों में –
” ईश्वर कहाँ होते हैं
भेदभाव के पक्षधर
उन्हें तो प्रिय हैं
सभी मानव
तभी तो चरितार्थ होता है
उनका जगत्पालक का संकल्प !”
 ज़ाहिर है, कवि का संवेदनशील मन का इस चिंतनीय मुद्दे पर विषाद के सन्नाटे में डूबना स्वाभाविक है | ऐसे में उसका समरसता का आह्वान उसकी फ़र्ज़-अदायगी के साथ जीवन में आगे के सफ़र का
” नवांकुर ” और नवोन्मेष भी पैदा कर देता है –
” उगे सूर्य नया
फैले नवांकुर
मन से आत्मा तक पहुँचे
एक ही स्वर-लहरी
मानव-मानव में विभेद की
सरस हो
सुंदर हो
हो समरस
हमारी भावना !”
विपन्नता इंसान की उन्नति में बड़ी बाधा है | भूखे पेट कुछ सकारात्मक हो नहीं सकता | मगर इसका इंतिज़ाम करना भी कठिन है | सहज सुलभ और मयस्सर नहीं होती | इस विकटता में इंसान के सपनों के  धूल-धूसरित होते देर नहीं लगती | कवि ने इस दारुण-दशा का चित्रण बड़े दर्द के साथ अपनी कविता में किया है | कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
” और जिनकी आँखें
उनींदे सपनों को
जीती रहती हैं
जिनकी जीभ पर
पिलती रहती है
गोल-गोल रोटियाँ
वे तो
भूख और आग के बीच
का फ़ासला नापते हुए
रोटी के स्वाद के नाम पर
टपकती लार
को
महसूस करते भर
रह जाते हैं !”
इस संग्रह में कवि ने ” कविता में जीते हुए ” जो कुछ रचा है, वह हर दृष्टि से श्लाघनीय और बेहद स्तरीय है | सभी कविताओं में बेहतरीन काव्य-तत्वों के दर्शन होते है | अनुभूतियों का अतिशय ईमानदारी के साथ चित्रण विरले ही कोई सर्जक कर पाता है | पुस्तक का आवरण पुरकशिश और छपाई शानदार है | कहीं-कहीं प्रूफ शोधन की त्रुटि कोई ख़ास मायने नहीं रखती | कवि को आत्मिक बधाई और शत-शत मंगलकामनाएँ !
– Dr RP Srivastava
Editor-in-chief, bharatiyasanvad.com

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