पुस्तक -*शब्द-शब्द*
विधा – कविता
लेखक – रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’
समदर्शी प्रकाशन,साहिबाबाद,ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
प्रकाशन वर्ष -2023
पेपर बैक संस्करण, पृष्ठ संख्या -147
मूल्य -200 ₹
* पत्रकार रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ की कविताएँ *
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23 सितंबर 1962 को बलरामपुर जनपद के गाँव मैनडीह में एक शिक्षित किसान परिवार में जन्मे रामपाल श्रीवास्तव के पिता का नाम स्व. उदयप्रताप लाल श्रीवास्तव है । पेशे से मूलतः पत्रकार होते हुए भी आपने कविता, आलोचना और शोध की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किया है । वैसे तो आपके पास पत्रकारिता का कोई 42 वर्षों से ज़्यादा का लंबा अनुभव है । आपने पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की है और सन् 1980 से ही आपकी पत्रकारिता का दौर आरंभ होता है । इधर पत्रकारिता के पेशे से सेवानिवृत्ति के बाद आपकी दो-तीन पुस्तकों का साल भर के भीतर ही प्रकाशित होना आपकी लेखकीय सक्रियता का सबसे ठोस प्रमाण है । आप की कविता एवं समीक्षा की पुस्तकों से गुज़रने के बाद जो पहली छवि एक पाठक के दिमाग़ में बनती है, वह है आपके अध्ययनशील होने का । आपकी कई भाषाओं पर भी बारीक़ पकड़ है –विशेषकर हिन्दी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेज़ी पर । आपकी तीसरी पुस्तक हाल ही में प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है -‘अवतारवाद -एक नयी दृष्टि ‘। मुझसे आपकी मुहब्बत का ही नतीजा है कि इस पुस्तक की एक लघु भूमिका लिखने का अवसर आपने मुझे प्रदान किया है । आपकी एक-दो और पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं — ‘सत्ता के गलियारों में सफ़ेद हाथी’ और ‘बाबू राव विष्णु पराड़कर का हिन्दी को योगदान’ ।‌ दरअसल यह पुस्तक आपके स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान लघु शोधप्रबंध के रूप में लिखी गई थी जिसे इधर फ़ुर्सत पाकर आपने एक नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया है ।
मैं बलरामपुर में 26 वर्षों तक रहा हूँ –जुलाई 1996 से 30 जून 2022 तक ; परंतु आपके बारे में मेरी जानकारी हुई सन् 2018 में जिन दिनों मैं अपनी पुस्तक -‘मेरा बलरामपुर’ लिख रहा था — फ़ेसबुक पर ही । आपने उसके कुछ हिस्से को स्वतः संज्ञान लेकर अपने ब्लॉग ‘भारतीय संवाद.कॉम’ पर डाला था । यद्यपि मैं आपको बतौर पत्रकार जानता था, लेकिन इधर आपकी कविताएँ और पुस्तक समीक्षाएँ पढ़कर मुझे एक सुखद अनुभूति हो रही है । इन दिनों आप बलरामपुर जनपद के सक्रिय लेखकों में अग्रणी दिख रहे हैं । आपकी कुलजमा 45 कविताओं का संग्रह ‘शब्द-शब्द’ पढ़ते हुए मेरे दिमाग़ में जो पहली बात आई वह यह कि रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं पर उनके चिंतक और अध्ययनशील मन का गहरा प्रभाव है । वैसे तो उनकी कई कविताएँ शब्द को लेकर ही लिखी गई हैं जिनमें जीवन और समय-समाज से सम्बद्ध गूढ़ दार्शनिक निष्पत्तियों को भी देखा-परखा जा सकता है । मेरी जानकारी में शब्द को लेकर सबसे गंभीर चिंतन गोरखनाथ के काव्य में मिलता है । फिर निर्गुण भक्ति काव्य में । वैसे हिन्दी में गोरख से लेकर धूमिल तक और कई नए कवियों में भी शब्द को लेकर कविताएँ ख़ूब लिखी गई हैं । शब्द हिन्दी काव्य परंपरा में नए -नए रूपों में बिम्ब -प्रतीकों में ढलता रहा है । गोरखनाथ का एक दोहा बहुत लोकप्रिय रहा है — “सबदे मारी, सबदे जुलाई, सबदे महमद पीर । ताकै भरमि न भूलौ काजी, सो बल नहीं सरीर ।। ” कबीर के बीजक में तो एक हिस्सा ही है ‘सबद’ का — साखी, सबद और रमैनी । शब्द अपनी तरह से सूफ़ी कवि मलिक मुहम्मद जायसी, सूर और तुलसी के यहाँ भी उपस्थित हैं । रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ भी शब्द की सत्ता और उसकी शक्ति से जुड़कर,उससे अपना समुचित पाथेय ग्रहण करते हुए जीवन यात्रा में एक अनथक यात्री बने हुए हैं जो उदासियों और अँधेरे के कुहासे को दूर करते हुए आगे बढ़ते रहता है । शब्द आपको नीति-अनीति में, अच्छे-बुरे में फ़र्क़ करने की तमीज़ प्रदान करते हैं । रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक’ अपने समग्र विवेक के साथ आस्थावादी भी हैं । आप शब्द को अलौकिक सत्ता से जोड़ते हुए भी लोक जीवन के प्रति एक गहरी अंतर्दृष्टि का भाव रखते हैं । आपकी कविताओं में समय-समाज, प्रकृति-संस्कृति के भीतर आए नकारात्मक परिवर्तनों पर भी चिंता प्रकट की गई है । आपकी लंबी कविता ‘मैनडीह का स्मृति -गवाक्ष ‘ गाँव में आए बदलाव को लेकर अनथक का मन व्यथित दिखता है । नदियाँ सूख रही हैं और जंगल उजाड़ हो रहे हैं । आपकी इन कविताओं में मार्मिक पुकार है –“एक नदी थी /जो नवगज़वा से बहती थी /अभी तो अर्द्धशती भी नहीं बीती!! कहाँ है वह? कहाँ है उसकी निर्मल धारा /जो थी सबका सहारा /जानता हूँ /अब तू नहीं बहती /तेरा पानी जम चुका है/ऊपर से सड़ांध /नाले में तब्दील होकर भी /तेरा यह हाल है!? ” आप आगे लिखते हैं -“इन घनेरे वृक्षों की छाँव/जहाँ अब पथिक नहीं /रेतीले भहराए तट हैं…दूर-दूर तक /नदी के कंकाल को /मैं साफ़ -साफ़ देख रहा हूँ /नीर नहीं, समीर नहीं /दोनों काले /ज़र्द पड़ गए हैं! “इसी तरह ‘कोरोनियत मुर्दाबाद’ और ‘पूँजीवादी शहर’ में समय-समाज की विडम्बनाओं एवं विसंगतियों को अभिव्यक्ति मिली है । आपकी कविताओं में ‘मैं पत्रकार हूँ’ और ‘हे राम ‘भी मुझे उल्लेखनीय प्रतीत होती हैं ।
बहरहाल, आपको हमारी बधाई और शुभकामनाएँ ।
– चंद्रेश्वर 
[ पूर्व विभागाध्यक्ष , हिंदी, एम एल के कालेज , बलरामपुर [ उत्तर प्रदेश ]
मोबाइल – 7355644658

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