‘अवतारवाद : एक नई दृष्टि’ जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक रामपाल श्रीवास्तव जी की सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह “अंधेरे के ख़िलाफ़” इस समय मेरे हाथ में है।”अंधेरे के ख़िलाफ़” लेखक, कवि का यह दूसरा संकलन है। पहली पुस्तक “शब्द-शब्द” की कविताएं अध्यात्म से ओतप्रोत थीं तो “अंधेरे के ख़िलाफ़” जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है, विद्रोही स्वर उभर कर आया है, जो अन्याय और भेदभाव के ख़िलाफ़ खड़ा दिखाई देता है।
हे प्रभु
संबल दे हमें
अंधेरा चीरने के लिए
तिमिर नाश के लिए
सक्षम कर हमें
बढ़ा दे उपादान/ आधार
दिव्यता से लगे रहें हम
इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच समय-समय पर छिड़ने वाले युद्ध से कवि मन व्यथित है इसीलिए वह अन्याय के प्रति अपनी आवाज़ बुलंद कर कहता है –
क्यों करते हो सरकशी?
कोई काम न आयेगी
यह दुनियावी दिलकशी
क्या तुम जानते नहीं?
मनुज मरकर ज़िन्दा होता है
हर शहादत के बाद
प्रतीक्षा करो!
जब अंधेरा नहाएगा
रोशनी से
इंसान के वेष में
सिर्फ़ इंसान रह जायेगा
इस संग्रह की कविताएं बौद्धिक रूप से परिपक्व कविताएं हैं। संकलित कविताएं सत्य के प्रति एक आह्वान है। इन कविताओं में उर्दू- अरबी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया गया है।
उस तेज़ व तुंद आवाज़ ने सबको
किया मिस्सार
‘ग़तफ़ान’ और ‘तै’ को भी किया
सरशार
————–
सुराज लाओ
इकामते दीन कराओ
बुर्दबारी , रवादारी अपनाओ
‘व मा कानन्नासु इल्ला
उम्मतंव्ववाहिदतन’
वसुधैव कुटुंबकम् !
वंदे मातरम् !
‘अंधेरे के ख़िलाफ़ ‘ की कविताएं क‌ई ऐतिहासिक शख़्सियतों, घटनाओं और कथाओं पर रची गयी हैं। इस संग्रह की शुरुआती कविताएं गूढ़ हैं। निर्मल वर्मा के ‘परिंदा’, गीतांजलि श्री की ‘रेत समाधि’ और मणि मधुकर की कविताओं की तरह। मेरा मानना है कि यदि पाठकों को शब्दकोश लेकर बैठना पड़े तो ऐसी रचनाएं सिर्फ़ पाठ्य पुस्तकों के लिए ही सही हैं यदि ऐसा नहीं है तो रचनाकार को इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि वह किसी विशेष पाठक के लिए न लिखकर, एक साधारण पाठक के लिए लिख रहा है। सोशल मीडिया पर बहुत ऐसे बड़े नाम देखने को मिल जाएंगे जो अपनी पोस्ट को सिर्फ पढ़ाना और लाईक-कमेंट्स पाना चाहते हैं। ऐसा न करने वालों को अन्फ्रेंड करने तक को तत्पर रहते हैं लेकिन वह कभी अपने फ्रेंड्स की पोस्ट पर झांकने तक नहीं जाते। यदि ऐसे लोगों के लिए साहित्य रची जाएगी तो वह सिर्फ़ लाइब्रेरियों तक ही महदूद रह जाएगी। दूसरी बात, आप किन भाषी पाठकों के लिए लिख रहे हो, इसका भी ध्यान रखना होता है वरना रचना की संप्रेषणियता बाधित हो जाती है।
बावजूद इसके पाठकों को “अंधेरे के ख़िलाफ़” में बहुत कुछ नया पढ़ने को मिलेगा जो अन्यत्र दुर्लभ है।
………
पुस्तक – अंधेरे के ख़िलाफ़
पृष्ठ – 128
मूल्य – 200₹
प्रकाशक – समदर्शी प्रकाशन, साहिबाबाद।
………………
समीक्षा – अख़लाक़ अहमद ज़ई

कृपया टिप्पणी करें