” शब्द-शब्द ” (काव्य संग्रह)
प्रकाशक- समदर्शी प्रकाशन
रचनाकार–रामपाल श्रीवास्तव ‘अनथक ‘

रामपाल श्रीवास्तव लंबे अर्से से पत्रकारिता के क्षेत्र में जुड़े रहे हैं।उनका व्यापक अध्ययन चाहे इतिहास से संबंधित हो या राजनीति से, भारतीय संस्कृति -परंपरा से हो,या फिर किसी भाषा से संबद्ध, उनके अनुभवों का यह विशाल दस्तावेज, किसी न किसी रूप में देखने को मिल जायेगा। भाषा की पकड़ और शब्दावली पर नियंत्रण ,उनकी लेखनी में दृष्टिगोचर होती है। उर्दू और संस्कृत भाषा की निपुणता उनकी रचनाओं को और भी विशिष्टता की ओर ले जाती है।

सम्पादन/पत्रकारिता जगत का विशाल भंडारण, उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धियों में एक है। इन सबसे गुज़रकर ही रचनाकार गंभीर चिंतन की ओर मुखातिब होता है।
रामपाल श्रीवास्तव का गंभीर चिंतन, प्रौढ़ता एवं विद्वता उनके समूचे व्यक्तित्व में परिलक्षित होती है। उनका पहला काव्य संग्रह *’शब्द-शब्द’* को पढ़ते हुए खुद भी अपने विचारों को कसौटी पर कसने को विवश कर देती हैं- ऐसी अभिव्यक्ति या रचनाएं ।
रचनाकार ने अपने काव्य संग्रह के पूर्वकथन (‘दो शब्द ‘) में खुद स्वीकार किया है कि “दो दशकों की वेदना,संवेदना,अनुभूति और मनश्चेतना की अभिव्यिक्त हैं” ।जिसका लक्ष्य मानव कल्याण है और भावभूमि ‘सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय ‘ में समाहित है।
कवि परिचय के बाद ‘काव्य -पीठिका’ में भारतीय भाषाओं के विकास में कविता/काव्य के संदर्भ में, सभी भारतीय भाषाओं यथा हिन्दी,संस्कृत ,तमिल, तेलुगू,कन्नड,मलयालम,सिंधी,कश्मीरी ,पंजाबी,बांग्ला,असमिया,उड़िया,मराठी और उर्दू पर पूर्व परिचय कराया है।
विभिन्न प्रांतों में रची-बसी कविता की सम्यक जानकारी देने का यह प्रयास, अन्यत्र लेख के रूप में भी दिया जा सकता था, जबकि भारतीय भाषाओं की पूर्व पीठिका की यहां बहुत अधिक आवश्यकता नहीं थी।
शब्द-शब्द काव्य संग्रह में संकलित 45 कविताएं , रचनाकार के दो दशकों के अंतराल का प्रतिफल है। इनकी लगभग सभी कविताएं ,बौद्धिक संपदा से संतृप्त जान पड़ती हैं।रचनाकार मानवीय संबंध और सृष्टि के अंत:संबंध पर भी विचार को आमंत्रित करते नज़र आते हैं।
इस काव्य संग्रह की आरंभिक कविताओं की मूलचेतना का स्राव, सृष्टि और पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। जो शब्द रूप में कण- कण में ध्वनित प्रतीत होती है,जिसे अंतश्चेतना में उतरकर ही जाना और समझा जा सकता है।
शब्द-शब्द काव्य संग्रह शीर्षक की सार्थकता, उनकी पहली कविता
में ही दृष्टिगोचर होने लगती हैं—-
“शब्द क्या है?
अंदर का बंधन
अनहद नाद
दिलो तक पहुँचने का तार”
आखिर पूरी कायनात में यह शब्द ही तो ध्वनित हो रहा है।
रचनाकार ने शब्द के आकार-प्रकार एवं अर्थ को व्याख्यायित करते हुए आगे इसी कविता में कहता है —
” जो चाहता है
हो जाता है
तांडव भी इसी से होता है
हां, शब्दों से संहार। “
वस्तुत: शब्द रूपी वाणी का प्रयोग यदि सार्थक होता है मनुष्य अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो सकता है, यदि दुरूपयोग होता है तो तांडव/संहार भी हो सकता है। रचनाकार का जुझारू एवं पत्रकारिता से युक्त व्यक्तित्व, कई पड़ाव से गुज़रता है।
सत्ता और सत्ता में सांठगांठ करने वाले सौदागर कैसे-कैसे षड़यंत्र करते हैं, वहाँ रचनाकार की कलम बेेबाक चलती है।
कुछ पंक्तियों के उद्धरण देना समीचीन होगा—-(पृष्ठ संख्या 54 से )
” हताश/ निराश
क्योंकि नहीं चलती उसकी सत्ता
जैसी चलनी चाहिए
तिजोरियों में कैद
मुट्ठीभर सौदागरों के हाथों में खेल रही
खो रही गुणवत्ता
सूखे,बंजर, चटियल मैदान
ऊपर से यह संकट
दूसरों का संकट कैसे टालूं
खुद बवंडर में फंसा हूँ
कहाँ जाऊं?
जहां बच सके
वजूद मेरा
और जनता-जनार्दन का
सत्ता’ तो बिजूका हो गई।
एडमंड वर्क भी अच़रज में है
क्या कहें
क्या न कहें
दूसरी ‘सत्ता ‘ कहाँ से ढूँढकर लाऍ?
बड़े से बड़े सवालो में
घिरा हूँ मैं
पत्रकार होकर निराकार हूँ।
हे ईश्वर!
क्षमा कर देना
निराकार को
साकार कर देना।”
रचनाकार ने इतिहास के पन्नों को खोला है, अतीत में झांकने की कोशिश की है तो कभी-कभी पूंजीवाद के बढ़ते दुष्प्रभाव पर नज़र भी डाली है —-
‘पूंजीवाद शहर ‘ कविता (पृष्ठ संख्या 112 पर)
की पंक्तियां दृष्टव्य है—–
“.मुंडेर पर बैठा
एक कौआ
दुख भरी आवाज़ में कह रहा था-
दाना भी चुगना हुआ मुश्किल
इस कंक्रीट के जंगल में
जिसे अन्न-कण समझ
दाना समझ
चोंच से उठाता हूँ
सब कंकड़ हो जाता है।”
रचनाकार ने स्पष्ट किया है कि पूँजीवादी तंत्र की व्यवस्था में मानव,पशु-पक्षी सभी चपेट में हैं-
“पूँजीवाद का
जहां धन का है
रेल पेल
वाद भी है
अंधी रेल
जाना कहाँ है
पता नहीं ?
मगर सिर्फ
माल पहुँचना है
गुलाम बनाना है
उनको जो उनमें से नही।
इसलिए मुंडेर ही जीवन मेरा।”
कवि का जीवन-क्षेत्र, विभिन्न प्रांतों से आबद्ध रहा है, खासकर जुझारू पत्रकार के लिए, चुनौतीपूर्ण मुकाम भी।
अगले पड़ाव की कविताएं, धीरे-धीरे आत्मबोधन के स्तर पर चिंतन-मनन करती दिखाई देती हैं।आत्मबोधन का यह स्वर मुखर रूप से प्रकट होता है।
शब्द-शब्द काव्य संग्रह की एक कविता “मेरा अस्तित्व ” पर मेरा ध्यान अचानक आकृष्ट होता है—-(पृष्ठ संख्या 58 पर )
“आज साठ पूरा करने के करीब पहुंचकर
देखा अपने अस्तित्व को
अपने आपको
अपने में खोकर ,
अब इसे ओढ़-बिछा नही पाऊँगा
पहले की तरह
दिन-रात का ओढ़ना-बिछौना नहीं
बना पाऊँगा।
अब प्रतीक्षा है,
अंतिम यति की
फिर भी ‘अनथक ‘ जारी है कोशिश
कुछ पाने की!
अपने अस्तित्व को अंतत:खोकर।”
रामपाल श्रीवास्तव की जीवनदृष्टि व्यापक है ,कई बिंदुओं पर उनके विचार आपस में गुंफित रहते हैं। हर वर्ग के शोषण और हथकंडे का काला चिट्ठा उनकी नज़र से ओझल नहीं हो सकता है।
उनका स्वयं का मानना है कि पाखंडी /कुकर्मी/अधर्मी एक प्रकार से सत्यानाशी बीज की तरह होते हैं। ऐसे राक्षसों को एक जगह पड़े रहने की सलाह देते हैं, “सत्यापनाशी बीज ” कविता का कुछ अंश दृष्टव्य हैं -(पृष्ठ संख्या 85 से)
” पड़े रहो
चुपचाप
तुम सत्यापनाशी बीज हो
ज़हर की भांति फैलते हो
मगर तुम इतने ज़हरीले नहीं हो
जितने सत्यानाशी
उतने खूंखारी
गड़े रहो
तू सत्यानाशी बीज है
जहां रहेगा, वहीं चट करेगा
बर्बाद करेगा,आबाद रहेगा।
तुम अपना जीवन चाहते हो
अपनी बक़ा चाहते हो
इससे पहले कि
तुम्हारा बिषाक्त दूध
अब ओर कोई पीने न पाए
दुबके रहो
अपनी खोल में
अपनी औकात में
पशुता अब नहीं चलेगी
बेदारी का आलम है
चीरादस्ती का है अंत
सत्य आ गया है
असत्य मिटने के कगार पर है
होगा राक्षसों का अंत
जय-जय-जय तुरंत।”
राम पाल श्रीवास्तव जी अपनी भूमि, अपनी परम्परा व अपनी संस्कृति को अतीत के पन्नों में तलाशते नज़र आते हैं ,इस दृष्टि से संग्रह की कविता उनके ही गांव ” मैनडीह का स्मृति-गवाक्ष ” कविता पर देखने योग्य हैं—-(पृष्ठ संख्या 92 से )
“आज फिर उसी तिराहे पर खड़ा हूँ
जहां से जीवन शुरु हुआ
जहां पला-बढ़ा
शीतल समीर के साथ
छाँव मे लिपटी
कुहासे की चादर ओढ़े
सोयी रहती थी वह
मेरा जीवन, मेरी लय,मेरी गति थी–
वह जीवन दायिनी!
एक नदी थी
जो नवगज़वा से बहती थी
अभी तो अर्द्धशती
भी नहीं बीता। ।
कहाँ है वह?
” सूखी नदी का यह दूर तक फैला गवाक्ष
कभी यहाँ होते थे
फरेंद के हरे-भरे पंक्तिबद्ध वृक्ष।”
गाँव की पगडंडियां और नदी का कलरव कवि को आज भी विस्मित करती है, उससे भी कहीं आगे जाकर अपने पिता को स्मरण भी करते हैं ।उनकी एक प्रतीकात्मक कविता “पिता श्री का गुलाब ” की बानगी देखिए—-(पृष्ठ संख्या 119 पर )
” अब भी खूब खिलता है
मेरे आंगन का लाल गुलाब
याद दिलाता है
पिता श्री का
जो इसके बानी थे
और
मेरे भी….
उस समय मैं नहीं था
जब उन्होेंने लगाई थी
दशकों पहले
इसकी क़लम
गुलाब था ।”
फूलों को देखना अच्छा लगता है
ईश्वर की याद दिलाते हैं ये
लोक ही नहीं
परलोक भी महकाते हैं ये
लाल गुलाब में कुछ ख़ास जीवन है
इससे मेरा प्रेम ख़ास है
लेकिन पंडित नेहरू जैसा नहीं
जो अपनी पत्नी की याद में निमग्न थे
शेरवानी पर लाल गुलाब लगाते थे
मेरा प्रेम नैसर्गिक है/रूहानी है
दुनियावी/मायावी नहीं।
सोचता हूँ
क्या पिता जी ने रूहानियत बख़्शी?
लाल गुलाब का फूल
उपहार देकर कहा था
यही मेरा श्रेष्ठतम उपहार
सच है,यही सच है
मैं आज भी ज़िंदा हूँ
इसी उपहार के साथ। “
रामपाल श्रीवास्तव जी जो भी विषय उठाते हैं ,उसकी तह तक जाने की पूरी जद्दोजहन से जूझते हैं ,कभी-कभार आक्रोश से भर जाते हैं।
“नेता जी बोलिन” शीर्षक की रचना देखी जा सकती है—-(पृष्ठ संख्या 145 से)
” इलेक्शन के मौके पर
नेता जी फिर हुऍ
नमूदार
अपने संगी -साथियों के संग
भाषण करते हुए
दमदार
एक सभा में बोले-
मैं पिछले पांच साल
बहुत परेशान रहा
बिजली,पानी को लेकर
हलकान रहा
और अब क्या कहूँ
एक बार फिर मुझे वोट दो
जल्द लाऊँगा
बिजली, पानी
क्योकि मुझे इनके ठेके मिल गए हैं
बार-बार के गिले-शिकवे मिट गए हैं।”
रामपाल श्रीवास्तव जी के रचना संसार का व्यावहारिक पक्ष, मानवीय और नैतिक दायित्व की हिमायत करता हुआ, आध्यात्म की ओर उन्मुख आशावादी दृष्टिकोण लिए है। अपने राम के बारे में, “हे राम ” कविता में लाईनें देखें—-(पृष्ठ संख्या 64 पर )
“हे राम!
सर्वशक्तिमान
दयावान
सर्वाधार
निर्विकार
अजर
अमर
अनंत
न्यायकारी
सर्वसत्ताधारी
सर्वव्यापक
‘ऐसे घट-घट राम हैं दुनिया जानत नाहिं’।”
आशावान होकर कवि रामराज्य की पुन: स्थापना हेतु आह्वान करता है–
” हे राम!
तेरे राज्य के प्रति हम आशान्वित हैं
प्रतीक्षारत हैं
शिद्दत से
सदियों से
बताइए भगवन!
कब आएगा वह युग?।
शब्द-शब्द काव्य संग्रह में रचनाकार ने अपनी बात को पुरजोर ढंग से कहने की कोशिश की है, आमजीवन की त्रासदी , अमानवीय व्यवहार, कथनी-करनी के अंतर, व्यवस्था के खिलाफ, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती पर अपनी बेबाक कलम चलाई है। साथ-साथ सृष्टि और नियति के मानवीय संबंध को जोड़कर देखने का अनूठा प्रयास रहा है।
विपुल शब्द संपदा के धनी रामपाल श्रीवास्तव की रचनाओं में आम बोलचाल की सहज भाषा के दर्शन हो सकते हैं तो कहीं संस्कृतनिष्ठ भाषा,उर्दू के भी शब्द प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुए हैं। किसी खास शैलीगत विशेषता को इस काव्य संग्रह में ढूँढना, वेमानी होगी।
दो दशकों के अंतराल में लिखी गईं रचनाएं ,उनके विस्तृत अनुभव को टुकड़ो में बांटकर देखना न्यायसंगत होगा अन्यथा दुहराव/बिखराव का सामना करना पड़ सकता है।
रचनाकार किसी बनी बनायी लीक से हटकर, अपनी खोज को सतत जारी रखना चाहता है। विभिन्न विषयों और नव प्रयोग लेखक का अहम हिस्सा है इसी संदर्भ में इसे समझा जाना चाहिए।

शब्द-शब्द काव्य संग्रह के इस प्रथम प्रकाशन पर रामपाल श्रीवास्तव जी

बधाई

के पात्र हैं।

निकट भविष्य में अपने ऐसे प्रौढ़ लेखन से और भी अछूते प्रसंग को प्रकाश में लाकर साहित्य को समृद्ध करते रहेंगे।
इसी आशा और शुभकामनाओं के साथ
दिलीप कुमार पाण्डेय
फगवाड़ा (पंजाब)
93162-60734

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