“अवतारवाद” एक नई दृष्टि
विधा : शोध
द्वारा : राम पाल श्रीवास्तव
संकल्प प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 335
पृष्ट  :251
समीक्षा क्रमांक : 117
प्रथम संस्करण : 2023
 अवतार से तात्पर्य देवता अथवा शक्ति का विभिन्न रूपों में अवतरण अथवा  प्रकट होना।  सामान्य तौर पर अवतार विभिन्न काल एवं रूप में धर्म स्थापना, अधर्म का नाश , पाप शक्तियों का अंत एवं मानव मातृ  की रक्षा तथा सतयुग की परिकल्पना को साकार रूप प्रदान करने हेतु अवतरित हुए हैं।
               रामपाल श्रीवास्तव जी द्वारा प्रस्तुत “अवतारवाद” एक नई दृष्टि वस्तुतः अवतारवाद के विभिन्न आयामों पर एक शोध है | जहां उन्होंने  अवतारवाद क्या है से प्रारंभ कर उसकी  कोटि एवं संख्या की धार्मिक ग्रंथों में दिए गए वर्णन को उद्धृत करते हुए विवेचना प्रस्तुत की है, वहीं अवतारवाद  के आवश्यक तत्व एवं विकास का चिंतन भी इसमें सम्मिलित है ।
                मूल रूप से उनके अध्ययन का विषय वैष्णव धर्म में तथा वैष्णव संप्रदायों में अवतारवाद  रहा है। साथ ही उन्होंने हिन्दू धर्म में अवतारवाद से इतर अन्य धर्मों यथा बौद्ध, जैन धर्म में भी अवतारवाद  पर चर्चा की है।
रामपाल जी की इस पुस्तक ने एक बार पुनः यह स्थापित कर दिया की वे जिस किसी भी विषय को केन्द्रित कर लिखते हैं उस पर उनका गहन शोध एवं चिंतन होता है तथा चिंतन के उस दौर में उत्पन्न भाव अथवा विचार शब्द रूप में सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं।
                  उनकी कृति सदैव ही भाव निहित होती हैं एवं शब्दों में निहित भावार्थ अत्यंत गूढ़ एवं विशाल अर्थ समेटे होते हैं, जो  एक गंभीर वैचारिक पाठन की आवश्यकता पर विशेष आग्रह भी रखते हैं। साथ ही विषय पर उनका गहन चिंतन शोध एवं प्रस्तुति निश्चय ही सराहनीय प्रयास होता है।
                  प्रस्तुत पुस्तक को सरल तो कदापि नहीं कहा जा सकता तथापि हर संभव प्रयास करूंगा कि पुस्तक के विषय में एवं उसके मूल तत्व के विषय में सरल रूप में विवेचन प्रस्तुत कर सकूँ। सबसे पहले प्रश्न यही होता है की अवतारवाद क्या है? तो यह एक धार्मिक और दार्शनिक अवधारणा है जो विभिन्न धर्मों में पाई जाती है।
हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान अवतारों के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होते हैं ताकि वे लोगों को उनके धार्मिक और नैतिक मार्गदर्शन कर सकें। कृष्ण, राम, वामन, नृसिंह, और परशुराम आदि हिन्दू धर्म में प्रमुख अवतारों के रूप में माने जाते हैं किन्तु रामपाल जी के शोध के अनुसार, अवतार शब्द का वास्तविक अर्थ ईश्वर द्वारा पृथ्वी पर उतारा गया होता है न कि स्वयं ईश्वर का प्रकट होना। अर्थात अवतार स्वयं प्रभु नहीं है वह उनके द्वारा भेजे गए हैं।
                   ईश्वरीय सृष्टि, सत्य की विजय एवं धर्म की स्थापना, भक्ति, एवं कर्मों का फल इत्यादि अवतारवाद के आधारभूत तत्वों में शामिल हैं । इसके मुताबिक ईश्वर ने अपनी इच्छा के अनुसार विभिन्न अवतारों के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होकर धर्म की स्थापना के निमित्त सृष्टि को निर्मित किया एवं अवतारों का उद्देश्य प्रभु अथवा शक्ति रूप से इतर सामान्य रूप में उपस्थित हो प्रगत होकर अपने आचरण द्वारा धर्म का संदेश देना ही है।
                    रामपाल जी ने अपनी पुस्तक में वैष्णव धर्म में अवतारवाद विषय पर भी विस्तार से चर्चा प्रस्तुत की है । वैष्णव धर्म के अनुयायी विष्णु को सर्वोच्च ईश्वर मानते हैं और मान्यता देते हैं कि विष्णु अवतारों के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। विष्णु के दस प्रमुख अवतारों को “दशावतार” कहा जाता है, जिनमें कुर्म (कछुआ), वराह (सूअर), नृसिंह, वामन , परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि शामिल हैं। इन अवतारों का उद्देश्य धर्म स्थापना, असुरों का संहार और भक्तों को मार्गदर्शन करना |
                   वैष्णव भक्ति में, कृष्ण और राम को विष्णु के पूर्ण अवतार के रूप में माना जाता है, और उनकी भक्ति को मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना जाता है। वैष्णव साहित्य, भजन, और कथाएं इस धर्म के अनुयायियों के बीच भक्ति को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं।
                    यूं तो बौद्ध धर्म में अवतारवाद की सैद्धांतिक परंपरा नहीं है। बौद्ध धर्म गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित है, जिन्होंने विशेष रूप से दुःख के कारण जीवन का समाधान ढूंढने के लिए अपनी आध्यात्मिक अनुभव का प्रमाण दिया। बुद्ध को महापुरुष माना जाता है, जिन्होंने निर्वाण को प्राप्त किया और दुःख से मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग प्रदान किया। विशेष बात यह है की उन्हें भगवान नहीं माना जाता, बल्कि उन्हें धर्मगुरु और उपदेशकर्ता के रूप में आदर्शित किया जाता है संभवतः यही कारण है कि बौद्ध धर्म में अवतारवाद अनुपस्थित है एवं यह धर्म उन अन्य धार्मिक परंपराओं से विभिन्न है जो अपने ईश्वरीय अवतारों की पूजा करती हैं एवं अवतारवाद को स्वीकार करते हैं।
               इससे विलग जैन धर्म में अवतारवाद का सिद्धांत है, जिसे “तीर्थंकरवाद” भी कहा जाता है। जैन धर्म में, तीर्थंकर एक प्रकार के धार्मिक उद्धारक कहे जा सकते हैं जो सांसारिक माय के बीच सम्यक दृष्टि प्राप्त करके मोक्ष का मार्ग प्रदान करते हैं।
                 तीर्थंकरों को जैन धर्म में “भगवान” माना जाता है, और उन्हें कल्पवृक्ष चक्रवर्ती एवं सर्वज्ञ आदि उपाधियों से विभूषित किया जाता है। जैन धर्म में आदिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी, सहित 24 तीर्थंकर हुए हैं। जैन धर्म में अवतारवाद का मुख्य उद्देश्य सत्य एवं अहिंसा की प्रेरणा देना है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो ।
                    अवतारवाद  विभिन्न धार्मिक एवं दार्शनिक परंपराओं में विभिन्न आयामों एवं सिद्धांतों में उपस्थित है।  जहां हिन्दू धर्म में विष्णु के दस प्रमुख अवतारों को दशावतार कहा जाता है, जिसमें कृष्ण और राम महत्वपूर्ण हैं।  तो वही जैन धर्म में तीर्थंकरों को महापुरुष और धर्मगुरु माना जाता है, जो सांसारिक सत्ता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन करते हैं किन्तु बौद्ध धर्म में अवतार की अवधारणा ही नहीं मिलती। जबकि सिख धर्म में, गुरु ग्रंथ साहिब को आध्यात्मिक अवतार के रूप में माना जाता है, और धर्म में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है।
इन विभिन्न आयामों में अवतारवाद अलग -अलग सांस्कृतिक एवं धार्मिक  परिप्रेक्ष्य में विद्यमान स्थापित एवं पूजित है।
             “अवतारवाद एक नई दृष्टि” में रामपाल जी ने अवतारवाद की कोटियां और संख्या विषय पर भी विचार प्रस्तुत किये हैं। यह धार्मिक सम्प्रदाय और उनकी शास्त्रिक परंपराओं पर निर्भर करता है। वे  श्रीमद भागवत का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि “ जिस प्रकार अगाध सरोवर से हजारों छोटे छोटे नाले निकलते हैं उसी प्रकार ऋषि, मनु, देवता, मनु पुत्र, प्रजापति,पराक्रमी राजा आदि जितने भी बलशाली व्यक्ति हुए हैं वे सब भगवान के कलावतार एवं अंशावतार ही हैं।  तदैव अवतारवाद की संख्या और कोटियां भिन्न-भिन्न धर्मिक सम्प्रदायों में अलग हो सकती हैं, और इसमें स्थानीय आधारित, ऐतिहासिक, और शास्त्रिक परंपराएं भी शामिल हो सकती हैं।
      अवतारवाद विभिन्न धर्मिक सम्प्रदायों में एक महत्वपूर्ण आस्था एवं विश्वास का विषय है। जहां इसके पैरोकार विद्यमान हैं वहीं इसे नकारने वालों का भी बड़ा वर्ग मौजूद है, अतः इस विषय पर विमर्श की अपार संभावनाएं उपस्थित हैं ।
– अतुल्य खरे
[ वरिष्ठ समालोचक ]
उज्जैन [ मध्य प्रदेश ]

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