पुस्तक :जित देखूं तित लाल
द्वारा : राम पाल श्रीवास्तव
प्रकाशन: शुभदा बुक्स
शीर्षक
समीक्षा का शाब्दिक अर्थ है सम्यक् परीक्षा, अन्वेषण । पुस्तक समीक्षा में किसी पुस्तक की सम्यक् परीक्षा और विश्लेषण किया जाता है। इस परीक्षा और विश्लेषण से पाठक को पुस्तक विशेष के विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है। पुस्तक समीक्षा पुस्तक की एक महत्वपूर्ण परीक्षा है जिसमें एक कथानक सारांश, मुख्य पात्रों और मुख्य विषयों के बारे में विवरण और लेखक की लेखन शैली की सकारात्मक या नकारात्मक समीक्षा शामिल है। समीक्षक पाठक को पुस्तक से परिचित कराता है। इस क्रम में वह पुस्तक के लेखक, विषय वस्तु, शिल्प, प्रकाशन स्तर आदि पर प्रकाश डालता जाता है। इसके साथ ही वह समग्र रूप में पुस्तक का आलोचनात्मक मूल्यांकन भी करता है। प्रस्तुत पुस्तक में राम पाल श्रीवास्तव जी द्वारा की गयी विभिन्न पुस्तकों की समीक्षा संग्रहीत कर प्रस्तुत की गयी हैं।
क्यों पढ़ें ?
हिंदी साहित्य के विशाल सागर में बेशुमार बहुमूल्य मोतियों में से किस का चयन करें यह , आम पाठक के समक्ष सबसे जटिल समस्या होती है । समीक्षा के आधार पर पुस्तक का चयन एक बेहतर विकल्प है । यूँ तो साहित्य जगत में समीक्षा एक विधा के रूप में दीर्घ काल से उपस्थित है किन्तु पुस्तक रूप में चयनित समीक्षाओं का संग्रह, उपलब्धता को लेकर लिया गया एक सुन्दर प्रयास है। प्रत्येक दृष्टि से यह एक उत्तम एवं संग्रहणीय पुस्तक है। समीक्षा अपने दायरे में गद्य एवं पद्य दोनों को ही रखती है किन्तु स्वयं गद्य रूप में ही विद्यमान है। किसी गुणी जन ने बेहद सरल शब्दों में समीक्षा की व्याख्या देते हुए कहा है कि समीक्षा मानो किसी सिनेमा के निर्देशक के गुण अवगुण पर चर्चा हो न की सिनेमा की कहानी ही बता दी जाये व पाठक का रोमांच समाप्त कर दिया जावे। समीक्षा का मूल उद्देश्य पाठक के मन में एक उत्सुकता जगाने के साथ साथ पुस्तक के गुण दोषों पर अपनी निष्पक्ष राय व्यक्त करना ही है।
रचनाकार
वरिष्ठ रचनाकार रामपाल श्रीवास्तव जी साहित्य की समस्त विधाओं में अपने स्तरीय लेखन द्वारा निरंतर बहुमूल्य सहयोग देते आ रहे हैं । उनका साहित्य क्षेत्र में लम्बा अनुभव बतौर लेखक, अनुवादक, पत्रकार एवं कवि रहा है । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से बतौर संपादक एवं प्रधान सम्पादक के रूप में जुड़कर तजुर्बों से उन्होंने बहुत कुछ अर्जित किया है एवं वह उनकी ओर से विभिन्न विधाओं में उनके द्वारा किये गए सृजन से स्पष्टतः परिलक्षित होता है। वे साहित्य की दृष्टि से बेहद समृद्ध उर्दू भाषा पर विशिष्ट तालीम हासिल कर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं एवं अपनी रचनाओं में समुचित प्रयोग करते है, समृद्ध भाषा , विस्तृत अध्ययन एवं साहित्य सृजन का वृहद् अनुभव उनकी रचनाओं को विशिष्ठ दर्ज़ा प्रदान करने में अहम् भूमिका निभाता है। प्रस्तुत समीक्षाएं समीक्षा लेखन हेतु अनिवार्य गाम्भीर्य, सतत चिंतन एवं लेखन के प्रति उनके समर्पण एवं निष्ठा को दर्शाते हैं एवं पुस्तक अपने आप में शोधार्थियों हेतु महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट संदर्भ ग्रंथ है।
विषय की गहरी समझ , विस्तृत एवं सुन्दर शब्दज्ञान का भंडार , विभिन्न भाषाओं पर मज़बूत पकड़ एवं विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति उनकी शैली को विशिष्ट बनाती है । साहित्य में उनका दीर्घकालीन योगदान अतुलनीय है ।
विषय वस्तु
समीक्षा अपने प्रारंभिक काल में कोई विशिष्ट पहचान एक विधा के रूप में नहीं बना पाई थी किन्तु महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के काल में उन्होंने ही इसे एक विधा के रूप में पहचान दिलवाई। एक समय पर तुलनात्मक समीक्षा पर काफ़ी काम हुआ , किन्तु हिंदी साहित्य में कुछेक वरिष्ठ साहित्यकारों के द्वारा जो आलेख अथवा टिप्पणियां लिखी गईं वे भी प्रमुखतः तुलनात्मक समीक्षा के दायरे में रखी जा सकती हैं ।
समीक्षाओं का संग्रह प्रस्तुत करना एक श्रमसाध्य एवं गंभीर कार्य है , जिसके द्वारा विभिन्न लेखकों ,कवियों की रचनाओं का अत्यंत सूक्ष्मता से सार्थक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए समीक्षा रूप में उनकी खूबियों एवं कमियों पर प्रकाश डाला जाता है ।
प्रस्तुत समीक्षा संग्रह, विभिन्न पुस्तकों के विषय में गंभीर विचारों का संग्रह है जो रामपाल जी ने पुस्तक पढ़ते समय अनुभव किये एवं उन्हीं भावो को जस का तस शब्दों में प्रस्तुत किया है । यह विचारों का प्रस्तुतीकरण विशिष्ठ ध्यानाकर्षण एवं सोच मांगता है अस्तु प्रबुद्ध जन हेतु पुस्तक पढने से पूर्व एक मार्गदर्शिका है समीक्षा हिंदी साहित्य में स्थापित विधाओं से इतर एवं वर्तमान की मांग तथा पहचान बन चुकी विधा है। उपभोक्ता केंद्रित विक्रयवादी मानसिकता नें अन्य उपभोक्ता वादी वस्तुओं के अलावा साहित्य, कला, शोध,व विमर्श केंद्रित सृजन को भी पूर्व से अधिक व्यापक रूप में समीक्षाधीन किया है ।
तब जबकि आम जन हर छोटे बड़े निर्णय लेने से पूर्व रिव्यू देखना चाहते हैं साहित्य जगत भी इस से अछूता नही रह सकता और यही कारण है कि इस विधा का प्रसार हुआ है जो की अस्वाभाविक कदापि नहीं है।
समीक्षा को आलोचना समझने अथवा दोनों को एक ही मान लेने की भूल भी बाज़ दफे गुणी जनों द्वारा कर ली जाती है जो कि कदापि उचित प्रतीत नही होती। सामीक्षा जहां विषय केंद्रित विधा है वही आलोचना का दायरा विस्तृत है एवं उसमें विचरण बिंदु गुणात्मक से इतर भी हो सकते है। एवं बहुधा आलोचना को नकारात्मकता से जोड़ कर ही देख गया है जबकि स्वस्थ सामीक्षा जो किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित न हो , मूलतः कमियों एवं दोषों की ओर इंगित करती है।
पुस्तक से
पुस्तक की शुरुआत डॉक्टर राम प्रसाद मिश्र की महाकाव्य “कल्पान्त” से हुई है । जो कि ऐतिहासिक पृष्टभूमि पर रचित एवं महाभारत पर आधारित है। समीक्षा के संग राम पाल जी ने महाभारत के कुछ अंश उद्धृत किये है जो पुस्तक हेतु परिचयात्मक कहे जा सकते हैं आगे विशिष्ट पंक्तियों के उल्लेख की शैली अपनाते हुए सटीक शब्दों में सूक्ष्म परिचय के साथ समीक्षा दी है एक बानगी देखें कि:
“अध्याय 4 हस्तिनापुर बेजोड़ है। निर्मल काव्य प्रवाह है, इसमें अन्य बातों के साथ विवेच्य विषय का अति उत्तम चित्रण किया गया है”।
द्रष्टव्य है कि काव्य के विषय में ज्यादा विवरण न देते हुए पाठक को पुस्तक के इस अध्याय के विषय में पढ़ने हेतु वांक्षित जानकारी दे दी गयी है या कहें कि रुचि जागृत कर दी है।
दृष्टव्य है कि जहाँ एक और समीक्षा के समस्त तत्व उपस्थित हैं वहीं किसी भी स्तर पर कोई अतिक्रमण या व्यर्थ प्रलाप नही है ।
“पिंजर
अगली सामीक्षा अमृता प्रीतम जी की देश विभाजन की विभीषिका दर्शाती कहानी पिंजर की है जहां उनका लेखन तार्किक एवम आलोचनात्मक भी है तथा पुस्तक की विभिन्न कमियों की ओर ध्यान आकृष्ट करता है।
अगली समीक्षा श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित राग दरबारी की है जिसमे पुस्तक की कथावस्तु का बहुत ही हल्का सा इशारा देकर लेखन शैली , तत्कालीन ग्राम्य व्यवस्था , पात्र चयन इत्यादि पर सूक्ष्म टिप्पण है । वर्तनी संबंधी गलतियों को प्रमुखता से सुझाव सहित दर्शया गया किन्तु यहां भी समीक्षा के सभी अनिवार्य तत्वों का पूर्णतः निर्वहन किया गया है।
पुस्तक “कलपान्त का बौद्धिक रस” , “पिंजर को स्वस्थ बनाएं”, “राग दरबारी या दरबारी राग”, जिनका ज़िक्र अभी उपरोक्त पंक्तियों में किया गया के अतिरिक्त भी “कितना सार्थक सुरंजन का चिंतन”, “राष्ट्रपिता पर नई दृष्टि कितने गांधी”, “लीक से हटकर लालटेन गंज”, “नीम अब सूख रहा है मगर क्यों” ,” अब जेबकतरा सामने हैं” पर भी अपने विचार प्रस्तुत करती है। समीक्षाएं एक सामान्य शब्द सीमा में हैं तथा पुस्तकों से उद्द्वारण दे कर अनावश्यक फैलाव से बचे हैं ।
वहीं “हम सब एक हैं और रहेंगे”, “हाशिमपुरा जो लाश गिरी वह मेरी ही तो थी” , , हमारा बलरामपुर”, “लाला दौलत राम राय का मंतव्य”, ‘थरूर उवाच”, “भविष्यवाणियों का सच”, पर लिखते हुए रामपाल जी ने अपनी कलम के पैने पन से परिचित करवाया है वहीं “शराब छोड़ो सुख से जियो और जीने दो” की समीक्षा आद्योपांत पठनीय एवं विचारणीय है। “सच्चा लोक व्यवहार’, “अफनासी निकितीन की अजब दास्तां”, “हरकारा की दस्तक”, “यथार्थ पूर्ण जीवन स्पंदन’और “बदहाली की कहानियां” की समीक्षाएं स्तरीय हैं व पुस्तक पढने हेतु प्रेरित करती हैं।
वहीं “प्रेरक बाल कवितायेँ पुस्तक पर भी अपने विचारों की कुछ झलक दी है ।
प्रस्तुत समीक्षा संग्रह में प्रत्येक पुस्तक पर श्रीवास्तव जी की गंभीर टिप्पणी है । यथा ‘राग दरबारी दरबारी राग” में मात्राओं की त्रुटियों के अतिरिक्त उर्दू के शब्दों को हिंदी में गलत तरीके से इस्तेमाल किये जाने को लेकर भी उन्होंने चिन्हित किया है । वर्तनी पर आपका विशेष ध्यान रहा है। समीक्षाएं कहीं भी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं एवं निष्पक्षता स्पष्ट दर्शनीय है।
समीक्षात्मक टिप्पणी
• मूलतः वैचारिक प्रस्तुति है एवं शब्दों में निहित भावार्थ अत्यंत गूढ़ एवं विशाल अर्थ समेटे हुए है जो कि एक गंभीर वैचारिक आन्दोलन का स्पष्ट आभास देते हैं।
• भाषा की शुद्धता एवं वाक्य विन्यास पर विशेष ध्यान दिया गया है। किस शब्द को कहां प्रयुक्त होने चाहिए, तथा किस अक्षर पर बिंदी नुक्ता कहां लगाना है, किस स्थान पर किस शब्द को कैसे लिखना चाहिए आदि काफी कुछ बेहद स्पष्टतः लिखा गया है।
• रामपाल श्रीवास्तव जी को हिंदी ,उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में महारत हासिल है, अतः व्याकरण पर विशेष नज़र रही है।
• किसी अन्य कथानक अथवा पुस्तक से तुलना नहीं है अर्थात उनकी समीक्षाएं तुलनात्मक न होकर मुख्यतः परिचयात्मक एवं विश्लेषणात्मक ही है।
• वर्तमान में समीक्षा के आवश्यक तत्व छोड़ अन्य सब कुछ उद्धृत किया जाने लगा है, जो की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष समीक्षा न होकर पुस्तक का सारांश अथवा प्रायोजित लेख अधिक प्रतीत होने लगे हैं किन्तु समीक्ष्य पुस्तक इसका अपवाद है।
– अतुल्य खरे
[ उज्जैन ]

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