आज देश के पहले दलित आई ए एस डॉक्टर माता प्रसाद का जन्मदिन है … शत शत नमन।11 अक्तूबर 1925 को उनका जन्म जौनपुर, उत्तर प्रदेश में जगत रूप राम के यहां हुआ। कुछ संदर्भों में उनका 1924 में पैदा होना बताया गया है, जो गलत है।
 दलित साहित्य के सिद्ध पुरुष डॉक्टर माता प्रसाद ने 2005 में राष्ट्रीय सद्भावना और साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए एक नाटक की रचना की थी। इसका नाम है ” हम एक हैं “। वे मेरे लेखन को भी पसंद करते थे। जो स्वयं लिखते, वे पुस्तकें भेजवाते।लंबे समय तक उनसे पत्र – व्यवहार रहा, लेकिन मुलाक़ात न हो सकी थी। 1995 में जब उन्होंने दिल्ली आने का प्रोग्राम बनाया, तो मुझे टेलीफोन के द्वारा सूचित किया। उस समय वे अरुणांचल प्रदेश के राज्यपाल थे। उन्होंने बताया कि वर्ल्ड बुक फेयर में दूसरे दिन मैं आ रहा हूं। गौतम बुक सेंटर के स्टाल पर तीन बजे तक रहूंगा। कृपया भेंट ज़रूर करें। उस दिन मैं गया। साढ़े बारह बज रहे होंगे। मैं गौतम के यहां गया। वहां पूछने पर पता चला कि माता प्रसाद जी अभी यहीं थे।कुछ देर मैं वहां ठहरा, पर जब वे नहीं आए। मैं यह कहकर वहां से चला गया कि आएं तो वाणी प्रकाशन के स्टाल पर उन्हें भेज दीजिएगा। वाणी के यहां मैं कुछ किताबें देख रहा था। लगभग आधा घंटा बाद सफेद खद्दर कुर्ते के अपने पारंपरिक परिधान में पधारे। मैं उन्हें पहचान गया और वे लगता है मुझसे पहले पहचान गए। वे मेरी ओर ही चले आ रहे थे। हम दोनों ने एक दूसरे को सीने से लगा लिया। उनकी सादा मिज़ाजी मुझे भाती थी। फिर हालचाल, लेखन का स्थिति और नए सृजन पर गुफ्तगू… कॉफ़ी के साथ। हम लोग लगभग तीन घंटे तक साथ रहे। उन्होंने अपनी दो पुस्तकें मुझे दीं।
इस प्रकार वे मेरे और निकट आए। राजनेताओं के बारे में मैं कुछ नहीं लिखता। इन्हें इनकी रचनाधर्मिता के कारण मैंने कभी राजनेता नहीं माना। दिसंबर 2006 में उनकी दी हुई यह पुस्तक कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। है तो यह पुस्तिका, पर अभी इसे नहीं पढ़ सका हूं। समय ही नहीं मिला। पिछलेे दिनों यह पुस्तक
पुस्तकों के बीच मिली। अच्छा नाटक है। साम्प्रदायिक सौहार्द जगाने की श्लाघनीय कोशिश है। यह माता प्रसाद की हिन्दी पुस्तक का उर्दू अनुवाद है। मूल हिन्दी पुस्तक मेरे पास उपलब्ध नहीं। इसका उर्दू अनुवाद प्रोफ़ेसर मुहम्मद सुलैमान ने किया है। छपी है नूर पब्लिकेशंस , देवबंद से। 44 पृष्ठों का है यह नाटक।
आइए जानें इस पुस्तक में है क्या ? देश में सांप्रदायिक एकता और सद्भाव एक बड़ा ही जटिल मामला है। इस दिशा में अब तक हुए सारे प्रयास विफल हुए हैं, लेकिन हताशा और निराशा नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए। कुछ विचारक कहते हैं कि यह असंभव है, जबकि मैं ऐसा नहीं मानता। माता प्रसाद जी ने भी ऐसा ही माना है। वे इसके प्रति सकारात्मक हैं। ” दो लफ्ज़ ” में लिखते हैं ” इस ड्रामे का मक़सद समाज में यकजहती ( एकजुटता ) पैदा करना है, जो मुल्क की यकजहती बनाए रखने और समाज में समाज में सलामती और सुख पैदा करने में मददगार हो सके।”
इसकी प्रस्तावना लिखी है डॉक्टर सोहन पाल सुमनाक्षर ने, जो भारतीय दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। इसमें उन्होंने बताया है कि वैदिक काल में वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा पाई जाती थी। इसका मतलब यह है कि सारे संसार के लोग एक परिवार हैं। सभी बराबर हैं। कोई छोटा – बड़ा नहीं है। यह कामना की गई है कि सभी लोग स्वस्थ और सुखी रहें। सबमें आपसी प्रेम और सबकी तरक्की हो, सब मिलकर रहें, साथ खाना खाएं। वैदिक काल के पांच हज़ार साल बाद इन्सानों की अपनी
स्वार्थपरता , घमंड और शक्ति व बड़ाई की इच्छा के कारण समाज हज़ारों जातियों और बिरादरियों में बंट गया। एक जाति दूसरी जाति से बड़ी होने का दम भरकर एक दूसरे से नफ़रत करने लगी। लोग बराबरी और सम्मान की चाह में दूसरे धर्मों में जाने लगे। धर्मों में भी मुकाबले बाज़ी चलने लगी। हिंसा भी हो जाती थी।
प्रस्तावना में यह भी है कि डॉक्टर माता प्रसाद जी की ज़िंदगी इन्हीं धार्मिक व जातीय झगड़ों के बीच गुज़री है। उनका यह नाटक लोगों को इस सच्चाई से अवगत कराता है कि सभी भारतवासी एक हैं। हमारी रगों में एक ही ख़ून है। सभी आपस में भाई – भाई हैं। अलग – अलग आस्था के मानने वाले होने के बावजूद हम एक हैं।
यह पुस्तक देश की एकता और अखंडता को मज़बूत बनाने में सहायक होगी। इस पुस्तक में तीन अध्याय हैं। सबके कई दृश्य हैं।
इस नाटक का आरंभ सूत्रधार करता है, जो यह तराना गाता है – भारत सबका देश है करते सब हैं प्यार, हिन्दू मुस्लिम बांटकर करो नहीं तकरार … । कथा की शुरुआत रामनाथ चौबे के लड़के द्वारा करीमुल्लाह को गलती से साइकिल टकरा दिए जाने से होती है, जिसके नतीजे में करीमुल्लाह के सिर में चोट लगी। थोड़ा – सा ख़ून भी निकला। घटनास्थल के पास ही ताश खेल रहे चार मुस्लिम नवजवानों ने साइकिल चलाने वाले की पिटाई कर दी।
 इस मामूली – सी बात पर शहर में दंगा भड़क गया। राम चरण अग्रवाल के घर के अहाते में हिन्दू इकट्ठा हुए और मौलवी अलाउद्दीन के घर के दरवाज़े पर मुसलमान। दोनों तरफ़ के लोग अक्रोशित और उत्तेजित हैं। मौलवी साहब लोगों को समझाते हैं कि सभी अभी खामोश रहें।दूसरी तरफ़ से पहले कोई झगड़ा – फसाद नहीं होना चाहिए। मुहम्मद कासिम कहता है, ” अगर इस्लाम की हिफ़ाज़त में हम शहीद भी हो गए, तो जन्नत का दरवाज़ा हमारे लिए खुला रहेगा।” मौलवी अलाउद्दीन कहते हैं कि नवरात्रि व दुर्गापूजा के समय ही इस बार रमज़ान पड़ रहा है। मूर्ति विसर्जन के समय फसाद खड़ा हो सकता है।
दूसरी ओर हिन्दुओं की मीटिंग में स्वामीनाथ पांडेय, राम चरण अग्रवाल और धर्म युवा महासभा के अध्यक्ष योगी अखिलानंद भी हिस्सा लेते हैं। यह बात पांडेय की तरफ़ से आती है कि मुसलमान हमें ललकार रहे हैं। अग्रवाल कहते हैं कि सरकार की मुस्लिम तरफदारी से हिन्दुओं की अनदेखी हो रही है। पंडित केवलानंद इस प्रकार अपनी बात रखते हैं, ” हमें अपने धर्म की रक्षा जान देकर भी करनी हैं।” वे मुसलमानों पर नाना प्रकार के आरोप मढ़ते हैं। मदरसों को आई एस आई के अड्डे बताते हैं। मुसलमानों को देश से प्रेम नहीं है, जैसी बातें करते हैं। स्वामी अखिलानंद अन्य बातों के अलावा मनु स्मृति के अनुसार देश चलाने की वकालत करते हैं।
इस पुस्तक के पहले अध्याय का पांचवां दृश्य अधिक लंबा है और गंभीर भी है। इसे दलित विमर्श के तौर पर जानना चाहिए। हिन्दू नेता मोहल्ला रविदास ( दलित बस्ती ) पधारते हैं। संत चौथी राम को इसका कारण नहीं समझ में आ रहा, तो दीनानाथ बौद्ध कहते हैं कि दुर्गापूजा की मूर्ति के लिए चंदा मांगने आ रहे होंगे। संत चौथी राम फरमाते हैं कि हम चंदा क्यों दें ? वे लोग आए और चंदा मांगा। संत जी ने कहा, ” पिछले साल चंदा दिया था, लेकिन जब हमारी बस्ती की औरतें दुर्गा जी की आरती उतारने लगीं, तो उनको दूर भगा दिया गया।”
राम चरण अग्रवाल स्वीकार करते हैं कि गलत हुआ। इस साल मूर्ति इसी बस्ती में लगेगी और पूजा आदि आप लोग करें। दीनानाथ बौद्ध आपत्ति करता है –
” हम लोग देवी – देवता की पूजा में यकीन नहीं करते। हम नहीं करेंगे।”
” आप लोग हिन्दू हैं। आप अपने त्योहार को क्यों नहीं मानते ? मुसलमान तो बारावफात धूमधाम से मनाते हैं।” पांडेय ने कहा।
बौद्ध मुसलमानों के यहां समाजी बराबरी की बात करता है। अपने को मानव धर्मी बताता है। वह हिन्दू धर्म की आलोचना करता है और अपने को अपमानित बताता है। साथ ही शबरी, शंबूक और सीता निर्वासन की अपनी बातचीत में अनावश्यक रूप से लेता है। जब अग्रवाल यह पूछते हैं कि भगवान राम को भी नहीं मानते, तो संत चौथी राम ने कहा कि मानते हैं, लेकिन दशरथ सुत राम को नहीं। हमारे राम हर जगह हैं
। पांडेय बोले, ” आपको हम हिन्दू मानते हैं। यह तो पूर्वजन्म का फल है, जो आप इस जाति में पैदा हुए हैं।” बौद्ध कर्मफल की बात की झूठी बताता है। संत चौथी राम की इस बात के साथ बातचीत का सिलसिला समाप्त होता है कि जिसके साथ भी नाइंसाफी होगी, हम उसकी मदद करेंगे चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान।
छठे दृश्य में कलेक्टर नीरा यादव त्योहारों के मद्देनजर शांति समिति की बैठक बुलाती हैं। मनमाने ढंग से मूर्ति रखने की अनुमति न देने की भी बात करती हैं। शहर की सफाई – सुथराई पर ध्यान देने का निर्देश देती हैं।
अध्याय दो ही नाटक का ख़ास है। महतवाना मुहल्ले में जहां दुर्गा जी की मूर्ति रखी थी, विसर्जन के समय तकरार हुई। मस्जिद में रमज़ान के दौरान कुरआन की तिलावत चल रही थी। स्वामी नाथ पांडेय धर्म युवा महासभा के नवयुवकों को बुला लेते हैं। अन्य लोग भी त्रिशूल, बल्लम और चाकू के साथ आते हैं। तलवार, चाकू और रॉड के साथ मुस्लिम नवजवान आते हैं। मुहम्मद क़ासिम कहता है, ” मुस्लिम भाइयों ! इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिए मरने – मारने से पीछे नहीं हटना है। अगर हम शहीद हो गए, तो जन्नत नसीब होगी।”
पांडेय कहते हैं, ” धर्म की रक्षा के लिए हिन्दू नवयुवकों को पीछे नहीं हटना है। हमारे प्राण जाते हैं, तो स्वर्ग में देवता हमारी आरती उतारेंगे।” दोनों पक्ष भिड़ जाते हैं। एक मुस्लिम नवजवान गिरता है। एक हिन्दू युवक भी गिरता है। पुलिसकर्मी घेर लेते हैं। बंदूकें तान लेते हैं। सबको हिरासत में ले लेते हैं। इसी समय आग की लपटें उठती दिखाई पड़ती हैं। साथ ही गोले – गोली की आवाजें आती हैं। पुलिस कहती है कि मालूम होता है, शहर में दंगा फैल गया है।
इंस्पेक्टर यशवंत सिंह कर्फ्यू का ऐलान करते हैं और देखते ही गोली मारने का आदेश देते हैं। अफ़वाहों पर ध्यान न देने की भी बात कहते हैं। कलेक्टर मीरा परमार अफसरों के साथ मीटिंग करती हैं। फिर मुहल्ला शांति समिति की बैठक होती। जन जीवन के ठप होने पर चर्चा होती है। पीड़ित जन आकर अफसरों को अपनी परेशानियां बताते हैं। इनमें एक शख्स रमज़ान कहता है, ” हुज़ूर ! हम मज़दूर पहले हैं, हिन्दू और मुसलमान बाद में। हिन्दू – मुसलमान का झगड़ा तो दोनों धर्मों के बड़े – बड़े लोग पैदा करते हैं।”
घटनाक्रम आगे बढ़ता है। डॉक्टर अबू मुहम्मद की क्लीनिक में भर्ती हिन्दू रोगियों को कत्ल करने के इरादे से मुस्लिम भीड़ आती है। कल्लन अबू मुहम्मद से रोगियों को सौंपने की बात कहता है, जिसे वे साफ़ तौर पर इन्कार कर देते हैं। भीड़ रोगियों को काफ़िर कहती है।
डॉक्टर कहते हैं, ” हमारे यहां जो मरीज़ हैं, वे मरीज़ हैं, हिन्दू , मुसलमान नहीं। वे मुझ पर यकीन करके आए हैं। आप लोग वापस जाइए।”
  बलवाई भीड़ ज़िद करती है। डॉक्टर ने फिर कहा, ” पहले मेरा कत्ल कर दो। इसके बाद हमारे मुस्लिम कंपाउंडर, फिर नर्सों के बाद मरीजों को हाथ लगा सकते हो। जब तक हम ज़िन्दा हैं, हम उनका कत्ल नहीं होने देंगे।” यह सुनकर सब चुपचाप वापस लौट जाते हैं।
अगले दृश्य में ऋतु और टीनू , रफीक के यहां लूटपाट और उसकी दो बेटियों के साथ दुर्व्यवहार की योजना बनाते हैं और हथियारों का बंदोबस्त करते हैं। रफीक , कृष्ण कुमार जायसवाल से मिलता है। पनाह देने की बात कहता है, तो जायसवाल उसे और उसके परिवार को अपने घर में रखते हैं। दंगाई वहां भी आ जाते हैं। जायसवाल को धमकाते हैं। रफीक के घरवालों को सौंपने की बात कहते हैं, जिसे जायसवाल यह कहते हुए इन्कार कर देते हैं कि चाहे हमको मार डालो, मगर हम रफीक और उनके परिवार को हाथ नहीं लगाने देंगे।
इतने में पुलिस आ जाती है।पुलिस ऋतु, टीनू और एक व्यक्ति को पकड़ लेती है।
दूसरी तरफ़ पंडित मिश्रीलाल चौबे अपने घर में दो बुर्कापोश औरतों को अपने घर में पनाह देते हैं। उनके साथ एक बच्चा भी है। उसी समय कुल्हाड़ी और छुरा लिए चार – पांच लोग आते हैं , जो उनका पीछा किए हुए थे। पंडित जी से उनके बारे में पूछते हैं। इस पर वे कहते हैं, ” हमारे घर में सहारनपुर से आई दो मेहमान महिलाओं के सिवा कोई नहीं है चाहो तो तलाशी ले लो।” एक व्यक्ति तलाशी लेता है। नहीं पाता। इसके बाद चार पुलिस वाले आते हैं। इंस्पेक्टर साहब खुश होते हैं यह जानकर कि पंडित जी ने झूठ बोलकर महिलाओं की जान बचाई। पुलिस उन्हें सुरक्षित उनके घर पहुंचा देते हैं।
अगले दृश्य में राम भोर ( दलित ) दंगे में लुटे भूलन शाह फ़कीर और उनके परिवार की इस तरह मदद करते हैं। उनका पीछा कर रहे चार हिन्दू कुल्हाड़ी लिए आते हैं और पूछते हैं कि तीन मुसलमान और उनके साथ एक औरत इधर से गुज़रे, किधर गए ? राम भोर तपाक से बोले, ” उत्तर की ओर भागे जा रहे हैं।” ( जबकि वे दक्षिण की ओर गए थे। )
फिर सिटी मजिस्ट्रेट का अस्पताल दौरा होता है। हलवाई जान मुहम्मद का इलाज चल रहा है। उनकी तीमारदारी अमृत कौर कर रही हैं। अमृत कौर के पति सरदार यशवंत सिंह का पता नहीं चल पा रहा है। जान मुहम्मद ने अमृत कौर को अपने यहां शरण दी थी और गुंडों की पिटाई में वे बुरी तरह घायल हो गए थे। पुलिस ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया।
इसके बाद दंगे के जायजे के लिए बैठक होती है। अफसरों के अतिरिक्त अन्य मौलवी, पंडित और पादरी भी हैं। बैठक में मौलवी असअद उल्लाह एक शेअर पेश करते हैं –
” जनून हिन्दू का हो या मुसलमान का, घर तो गरीबों के ही जलाए जाते हैं।”
इस बैठक में दंगे की जांच और मुआवजे का ऐलान होता है।
तीसरा अध्याय पुस्तक का अंतिम अध्याय है। श्रमजीवी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। एक मदरसे के नाजिम छात्रों समेत अपने सभी लोगों से राहत कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लेने को कहते हैं। रेलमंत्री उक्त मदरसे में भी जाते हैं और इस कार्य की तारीफ़ करते हैं। यह भी कहते हैं कि कुछ लोग मदरसों के बारे में झूठी बातें फैलाते हैं। दूसरी तरफ अंबेडकर महाविद्यालय में शांति, सद्भावना और भाईचारे का कार्यक्रम होता है, जिसने गीत , तराने आदि पेश किए जाते हैं। अगले दृश्य में राष्ट्रीय एकता दिवस मनता है, जिसमें राज्यपाल कृष्ण प्रताप सिंह आते हैं। दंगे में सराहनीय कार्य करनेवालों को सम्मानित करते हैं। अपने उद्बोधन में सद्भावना पर बल देते हैं। महाविद्यालय के विद्यार्थियों को भी वे पुरस्कृत करते हैं। इस प्रकार नाटक का अंत होता है।
 पुस्तक का यह उर्दू अनुवाद बड़ा नाकिस और दोषपूर्ण है। बड़ी असावधानी है। प्रूफ रीडिंग भी सही से नहीं है। कई स्थानों पर वाक्य अधूरे हैं। कुछ के कुछ है, यहां तक कि नामों में समानता नहीं है ! नाटक में नाटककार का उद्देश्य स्पष्ट है, लेकिन प्रस्तुतिकरण एकांगी है। दलित और मुस्लिम पक्ष उभरा हुआ है, जो नहीं होना चाहिए। हिन्दू धर्म की शिक्षाएं ठीक से नहीं आ पाई हैं। उसे सुमनाक्षर जी ने प्रस्तावना में कुछ संभालने का अवश्य प्रयास किया है।
– Dr RP Srivastava
Chief Editor, bharatiyasanvad.com

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