मैं किसी कृति की समीक्षा नहीं करता। अनजाने में समीक्षा के पुट मिलने भी लगें, तो समझिए कि वह मेरे मन की बात नहीं। इसकी एक बड़ी वजह है । वह है ‘ सारिका ‘ में एक समीक्षक का एक वाक्य, जो मेरे परम स्नेही एवं मित्र विष्णु प्रभाकर जी के एक लघुकथा संग्रह पर लिखा गया था। वह वाक्य विष्णु प्रभाकर जी को सदा कचोटता रहा। समीक्षक ने लिखा था, ” कुछ तो बहुत ही सुंदर हैं, लेकिन ये लघुकथाएं नहीं हैं।” समीक्षक उन रचनाओं को लघुकथा मान बैठा, जिनमें वह बात हो लघुकथा में कही गई है, उसी के आधार पर कोई बड़ी कहानी न लिखी जा सके, वही लघुकथा है। ज़ाहिर है, यह परिभाषा हास्यस्पद है। मेरे ख़याल से इसे मान लेने से लगभग सभी लघुकथाएं लघुकथा न रह पाएंगी।विष्णु प्रभाकर जी जिनसे उनकी अंतिम अवस्था तक मेरा आत्मीय संबंध बना रहा, अपने पीतमपुरा, नई दिल्ली स्थित आवास पर बताया, ‘ मैं  1939-40 से लघुकथाएं लिखता हूं। कोई समीक्षक यदि उन्हें लघुकथा न माने,तो वह उसका अधिकार है।’ वास्तव में विष्णु प्रभाकर जी इस आलोचना से इतने आहत थे कि अपने अंतरंग मित्रों से ‘ सारिका ‘ की चर्चा अक्सर करते। मेरा उनसे बरसों का दोस्ताना ताल्लुक बहुतेरे मुद्दों पर विचार पार्थक्य के बावजूद बना रहा। एक बार कॉफी हाउस में हम सब देर रात तक बैठे रहे। लघुकथा की बात चली, तो बड़े सहज भाव से बोले , ‘ भाई, मुझे कोई  लघुकथाकार न माने , मुझ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।’ऐसे ही धुन के पक्के भाई अख़लाक़ अहमद ज़ई हैं, जिन्होंने एक छोटे से कस्बे से उभरकर अपनी कड़ी मेहनत, लगन और  साधना के जरिए साहित्य पटल पर अपनी सशक्त पहचान बनाई। काबिले ज़िक्र है कि भाई अखलाक कहानीकार के साथ – लघुकथाकार भी हैं, लेकिन कहानीकार पहले हैं। लघुकथाकार के तौर पर उनकी सही पहचान बलराम के लघुकथा संकलन ( बीसवीं सदी की लघुकथाएं ) के चौथे खंड में शामिल होने के बाद हुई। ‘ जेबकतरा ‘ भी उनके पुख़्ता कहानीकार होने की पुष्टि करता है। वैसे तो है यह लघुकथा संग्रह है, मगर अंत में लगी दो कहानियां रचनाकार की विशिष्ट अभिरुचि की दर्शाती हैं। मैं यहां यह बात नहीं लिखूंगा कि भाई अखलाक के पास लघुकथाओं का अभाव है।’ जेबकतरा ‘ 35 लघुकथाओं और दो कहानियों पर मुश्तमिल है। दो – तीन लघुकथाओं को अपवाद मान लें, बाक़ी सारी लघुकथाएं अपने आपमें कामयाब हैं। ग़ज़ब की संप्रेषणीयता है। कुछ आंचलिक शब्दों के प्रयोग ने इनकी शोभा बढ़ा दी है। वैसे उबाऊपन किसी में नहीं है। पहली कथा ‘ कठोर दंड ‘ मज़ेदार है। इसकी दूसरी लाइन के एक शब्द में भद्दापन है, शालीनता का लोप है, जिससे बचा जाना चाहिए। बचा भी जा सकता था .. हरामखोरो , नालायको जैसे शब्द लिखकर। लिख दिया तो जनवादी प्रतिच्छाया पड़ गई। रचनाकार ने राजनेताओं को उपयोगी माना, अच्छा किया ! यह भीड़तंत्र भी है भाई !दूसरी कथा ‘ भूखे नंगे लोग ‘ अभावग्रस्तों की मार्मिकता को उकेरने के साथ ही पाठक की सहज सोच की तरफ़ रहनुमाई करने में सक्षम है। लेकिन इसकी 19 वीं पंक्ति में असहजपन ज़रूर है, लेकिन भाव निष्पादन के लिए इसे चलाना अधिक अन्यथा की बात नहीं है। वैसे चाय की महिमा और उसकी यथार्थता से आज सारी दुनिया वाकिफ है! अतः कम से चाय वाले लड़के की चिंता नहीं करनी चाहिए! तीसरी कथा ‘ घाटे की भरपाई ‘ में ‘अबे उल्लू ‘ ने जान डाल दी। अब तो ‘ भारत माता की जय ‘ लगभग सामान्य है। दूसरे दल भी इससे अधिक परहेज़ नहीं करते।चौथी है ‘ पहला क़दम ‘ । यह कथा मुनाफ़िक़त ( मिथ्यापूर्ण व्यवहार) पर चोट है। जब निष्ठा- आस्था नहीं, तो ढोंग – आडंबर कैसा?

पांचवी कथा ‘ असामाजिक तत्व ‘ में ” उसने भी, जिनके विचार तो क्या आचार – विचार तक मेल नहीं खाते थे ” (छठी , सातवीं लाइन) ध्यातव्य है। इसे दुरुस्त किया जा सकता है। कथा सत्य पर आधारित होने के साथ धारदार भी है। भाड़े के गुंडों की आड़ में सब चलता रहता है।छठी कथा ‘ दृष्टिकोण ‘ में ‘झाराझार तारीफ ‘ शब्द – प्रयोग मुझे कुछ अटपटा लगा। ग्रियर्सन के हिसाब से सही भी हो सकता है, लेकिन अवधी में ‘ झराझर ‘ ही ठीक है। कथा का थीम बेजोड़ है, लेकिन अंतिम पंक्ति में गाली… मानो गाली ही जीवन है। वैसे आमजन में गलियों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।अगली कथा ‘ अर्थनीति ‘ महिलाओं की वर्तमान प्रवृत्ति पर है। परख है इस चलन की,प्रहार है स्वच्छंदता पर। बड़ी किफ़ायतशियारी से काम लिया है रचनाकार ने। यह अच्छी लघुकथा की बड़ी पहचान है ‘ साम्यवाद ‘ में दम है, हालांकि इसका कार्ल मार्क्स से क्या ताल्लुक़ ? इस मज़दूर एकता का साम्यवाद से कोई सरोकार है, तो इतना जितना कि लघु कथाकार ने लिखा है, ‘ चिकन पार्टी ‘। यह कथा पूंजीवाद पर ज़रूर आघात करती है, परंतु हर आघात साम्यवादी नहीं हो सकता।

‘ वक्त ‘ कहानीनुमा लघुकथा है। इसमें बहुत ही महदूद वक्त में वक्त के लगभग सभी आयाम शामिल हो गए हैं। वक्त के सामने सभी नतमस्तक हैं, बेबस हैं।दसवीं कथा ‘ हिंदुस्तान का भाग्य ‘ वोटरों के ठगे जाने का सजीव चित्रण है। शौचालय अभियान के चलने पर भी हिंदुस्तान का यह दुर्भाग्य नहीं छूटा है और न ही निकट भविष्य में छूट सकता है। इस कथा की 11वीं और 12वीं पंक्ति में ‘ नेहायत मोअत्बर कारकून ‘ लिखा गया है। इनमें सभी तीनों शब्द अरबी भाषा के हैं। पहला तो हिंदी में रच बस गया है, जबकि शेष दोनों ठेठ हैं। इसे जबरन लिखना होता, तो इस प्रकार लिखा जाता – निहायत मोअतबर कारकुन। आसान हिंदी लिखा जाता, तो इस तरह लिखा जा सकता था, ‘ अधिक भरोसेवाला कार्यकर्ता समझकर मैंने अपनी समस्या बता दी।”नौकरी 1’ और ‘ नौकरी 2’ का कथानक एक जैसा है। भ्रष्टाचार पर चोट है। इस रोग उपचार न कभी हुआ और न होगा। कोई आस लगाना व्यर्थ है। ‘ नौकरी 1’ में पृष्ठ संख्या 31 पर छठी पंक्ति में ‘ ज़िन्हकारों ‘ प्रयुक्त किया गया है, जो अनुपयुक्त है। लिखा जाना चाहिए ‘ ज़िनाकारों ‘ । यह अरबी शब्द है, जिसका रूप बिगाड़ने का मतलब है इस्लामी शब्दावली से छेड़छाड़ ! इसमें नून के बाद अलिफ़ है, न कि ‘हे’। वैसे भी मैने ज़िनाकारों ही लिखा , पढ़ा और बोला है। दूसरों को भी इसी तरह से समझा है। इसी पृष्ठ पर ‘जिल्लत’ है, जिसे अर्थ भ्रम से बचने के लिए ‘ज़िल्लत’ लिखा जाना चाहिए।’ नौकरी -1′ और 2 की भांति ‘घरजमाई’ 1′ और 2 भी व्यतिक्रम में हैं। दोनों साथ – साथ होते, तो कहीं बेहतर होता या अलग – अलग शीर्षकों के अंतर्गत स्वतंत्र रूप में होते। दोनों घरजमाई की व्यथा – कथा लगभग समान है। दोनों अपनी असली पोजीशन समझ रहे हैं। दोनों कथाएं  दमदार हैं, जो कथाकार की निपुणता को बखूबी वाजेह करती हैं।

तेरहवीं कथा ‘ जयघोष ‘ अच्छी है। उभयनिष्ठ समस्याओं के सहारे सब तक रसाई हो सकती है। मेरे ख़याल से यह ‘विधि’ सभी भारतीय समाजों में न्यूनाधिक मौजूद है।अगली कथा ‘ सहानुभूति ‘ वर्तमान संत्रास को उकेरने में सक्षम है। ऐसे ही ‘अनपढ़ ‘ है। जब आचार – विचार नष्ट हो जाएं, तो सब अनपढ़ हो जाते हैं। वर्दी में भी इंसान होते हैं, इसका पता ‘वर्दी वाला इंसान ‘ से चलता है। इसमें कथाकार ने क़ादिर भाई से जो संवाद कहलवाया है, वह सत्य होने के साथ बड़ा रिमार्केबुल है। संवाद यह है, ” सूफ़ी – संतों ने हमेशा मानव जाति को प्राथमिकता दी, जबकि मौलाना – मौलवियों ने एक ढर्रे पर चलते हुए अपने लिए सारे साधन जुटाए।” इसी संवाद  में ‘ बुज़ुर्गान ए दीन’ को ‘बुजर्गान ए दीन’ लिखा गया है, जो प्रूफ़ की गलती मालूम पड़ती है।’ गर्वीली मुस्कान ‘ और ‘ हमारा इतिहास ‘ दोनों में विडम्बनाएं हैं। उम्दा हैं, स्तरीय हैं। अकबर में क पर बिंदु रखकर प्रूफ़ रीडर ने अनर्थ कर डाला है।’ कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार ‘ आज के युग में ऐसे ही मिलता है, जिसके लिए किसे दोषी ठहराएं, समझ में नहीं आता? मानकर चलते हैं इसके लिए भी जनता दोषी है।22वीं कथा ‘ हरवाह ‘ है, जो मार्मिक भी है और संवेदना से पूर्ण भी। जीवन में कभी ऐसी घटनाएं घट जाती हैं, जो अकल्पनीय होती हैं। लाइफ़ स्टाइल में बदलाव से नज़रिया भी बदल जाता है। लाजवाब कथा है यह।’ हमें क्या मालूम?’, ‘दानपात्र ‘, ‘ स्थान का महत्व ‘, ‘ अपना – अपना दुःख ‘, ‘चूहों की घंटी ‘ और ‘ बड़ा पेट ‘ सभी अपने में कामयाब हैं।’जेबकतरा ‘ जो पुस्तक का शीर्षक है,बड़ा ज़बरदस्त है। इसमें एक विचित्र मानसिकता का परिचय है। अतिरेक है,पर जब लोगों की सोच हद दर्जे प्रभावित हो जाए तो हर शख्स जेबकतरा ही नज़र आने लगता है।जो कुफ़्र करे,वही ‘ काफ़िर’ है। समाज में यह  भी होता है कि लोग अपने शब्द देते हैं। नियम यह है कि मस्जिद में फ़र्ज़ नमाज़ के साथ ही ताकीदी सुन्नतें अदा की जाएं और घर पर अन्य नफल नमाज़ अदा की जाए, जैसे – वित्र, तहज्जुद, चाश्त और अन्य सुन्नतें।’ पागल ‘ भी ऐसी ही है । लोग अपने मत को सही ठहराने में लग जाते हैं। बस शुरू हो जाता हैं विवाद।’नामर्द’और ‘अवसरवादी’ दोनों साधारण  किस्म की हैं । नामर्द न होती ,तो भी ठीक था। ‘ आख़िरी आसरा ‘ एक अच्छी कथा बन पड़ी है। अंतिम कथा ‘ शंका ‘ भी धारदार है।

‘ जेबकतरा ‘ दो कहानियों का भी साक्षी है, जिनमें ‘ धारावी ‘ प्रभावी है। झोपड़पट्टियों में ज़िंदगी कैसे चलती और कटती है, इसका जीवंत चित्रण है। भद्दी गाली भी, जो त्याज्य होनी चाहिए, किन्तु नहीं हुई ( पृष्ठ 70 )।राकिब को गवारा न हुआ और फेंक दी   सतही गाली। पृष्ठ 72 पर प्रूफ की भयंकर त्रुटियां हैं, यथा – पलतेइच, बननइच, वैसइच। समझ में नहीं आया कि कहा क्या जा रहा है। इनको नज़र अंदाज़ कर दें, तो बेसाख्ता कहना पड़ेगा कि ‘ धारावी ‘ बेजोड़ है, कथानक ऐसा है कि पाठक उसे सहज – सजीव महसूस करने लगता है। इस कहानी की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। साक़िब मियां की मां की मौत का मंज़र लाज़िमी था, न होता तो कहानी अधूरी लगती। जनाजे की नमाज़ के समय इजाज़त के प्रसंग में कथाकार ने ‘ वसूलन ‘ शब्द लिखा है, जिसे उसूलन होना चाहिए। किरदार ‘वसूलन’ बोले तो ठीक है।दूसरी कहानी ‘ न ज़मीं मेरी, न आस्मां तेरा ‘ बड़ी शिक्षाप्रद है। सऊदी कमाने वालों की एक सच्ची तस्वीर ! कहानी भारत से अधिक सऊदी के व्यापारिक शहर दम्माम के इर्द – गिर्द घूमती है। अमान कमाने दम्माम गया है। वहां उसने जिस यंत्रणा और संत्रास को भुगता, उसका कथाकार ने बड़ी बेबाकी के साथ चित्रण किया है। मैं सऊदी के दम्माम सहित कई शहरों में एक से अधिक बार जा चुका हूं। कुछ गांवों में भी जा चुका हूं, जहां किसी ग़ैर या अजमी के जाने पर प्रतिबंध है। चाहे शहर हो या देहात शोषण वाली मानसिकता और उसकी अमली शक्ल मौजूद है। ‘गनम’ अर्थात बकरी खरीदने के बहाने चार गांवों में गया। साफ़ महसूस हुआ कि गांव अभावग्रस्त और उपेक्षित हैं। इनसे कई गुना बेहतर भारतीय गांव हैं। यह बात ज़रूर है कि भारत से वहां पहुंचकर अमान नमाज़ पढ़ना सीख गया। नहीं तो दुर्रे अर्थात कोड़े पड़ते। बजमाअत नमाज़ की मजबूरी गले पड़ी होगी और इसके एवज़ में 27 गुना फजीलत का लोभ उमड़ा होगा। इस कहानी में यहां से वहां काम पर जानेवाली महिलाओं की एक गंभीर व्यथा की ओर भी इंगित किया गया है। कहानी में अमान और बाबू भाई को एक ऐसी ही महिला बताती है -” मैं जिस क़फ़ील ( मालिक) के पास हूं वह बाप – बेटे …. जब दिल होता है बिस्तर पर खींच लेते हैं। मैं हिंदुस्तान जाना चाहती हूं।”चूंकि कथाकार पत्रकार भी थे, इसलिए वह बहुत सारी हक़ीक़तों से वाक़िफ़ हैं। एक बार हैदराबाद के ‘ सियासत ‘ में रिपोर्ट छपी ऐसी ही महिलाओं के बारे में। भारतीय दूतावास ऐसी 23 महिलाओं को वहां से निकलकर लाया था। रिपोर्ट में यह बात भी थी कि सऊदी न्यायालय में शोषणकारी क़फीलों के विरुद्ध रिट भी दाखिल किया गया था, जिन्हें इस टिप्पणी के साथ खारिज कर दिया गया कि यह कोई गलत नहीं हुआ। पता चला कि लौंडी माना गया। इस ख़बर की कटिंग कई वर्षों तक मेरे पास थी। भाई अख़लाक़ की यह कहानी उन्हें अवश्य पढ़नी – पढ़ानी चाहिए, जो सऊदी जाने की तमन्ना रखते/ रखती हैं।

इस कहानी के पृष्ठ 82 पर ‘किश्त’ प्रयुक्त हुआ है, जो ”क़िस्त ” होना चाहिए। इसी तरह इस पृष्ठ पर और अन्यत्र ‘तैय’ इस्तेमाल किया गया है, जो ‘तय’ होना चाहिए। इक्का दुक्का लोगों ने ‘तै’ भी लिखा है।अंत में ‘जेबकतरा’ के सिलसिले में इतना अर्ज़ है कि आगामी संस्करण में इसका ठीक से प्रूफ शोधन अवश्य कर लिया जाए, ताकि अनावश्यक नुक़्तों से बचा जाए और जहां नुक़्ते नहीं लगे हैं लगाएं जाएं। पुस्तक में यह चल नहीं पाता।  मेरी तो बड़ी मजबूरी है कि सिस्टम में दिक्कत के सबब जहां वांछित है उनमें से कुछ जगहों पर नुक्ते नहीं लगा पा रहा हूं, क्षमा चाहता हूं।- Dr. RP SrivastavaEditor- in – Chief, Bharatiyasanvad

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