” तमाशाई ” दरअसल व्यंग्यात्मक उपन्यास है | दीर्घकाय न हुआ , तो क्या हुआ दमदार है | 98 पृष्ठीय इस उपन्यास को छोटे – छोटे कथानकों का मजमूआ भी कह सकते हैं , जिनकी अदायगी जमूरा और मदारी [ उस्ताद ] करते रहते हैं | संवाद इतने प्रभावकारी और चुटीले हैं कि पाठक को पढ़ने के लिए बाँधे रखते हैं | मैंने चाहा कि इस उपन्यास को दो सिटिंग  में पढ़ूँ , पर ऐसा संभव न हो पाया | 

दिवाकर पांडेय ” चित्रगुप्त ” का यह उपन्यास विभिन्न मुद्दों पर अपने  विशिष्ट पक्षों को उजागर करने के साथ ही सामाजिक विसंगतियों और भ्र्ष्टाचार को सीधा निशाना बनाता है | एक नाटक की भांति चलनेवाले संवाद उबाऊ तो नहीं होते , किन्तु तिश्नगी ज़रूर छोड़ जाते हैं | 
कुछ उपन्यास ऐसे ही होते हैं | मणि मधुकर का उपन्यास ” मेरी स्त्रियाँ ” ऐसा ही है , जिसके पात्रों के द्वारा देश के सामाजिक , राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे पर प्रहार किया गया है , गंभीर व्यंग्य वाण साधे गए हैं | ” तमाशाई ” की उक्ति और शैली कुछ ऐसी भी है , लेकिन इसकी अपनी अलग पहचान है , चलचित्र की संवाद पर संवाद | कोई ख़ास दृश्य निरूपण नहीं | इसे मात्र और मात्र ज्ञान – पिलाऊ बनाने की मंशा शायद यह है कि पाठक कम समय में अधिक से अधिक ज्ञानार्जन कर सकें | यदि ऐसा है , तो बहुत स्वागत है | इसका टेस्ट कभी फीका नहीं पड़ेगा और हिंदी उपन्यास जगत का मान – वर्धन करता रहेगा | 
समीक्ष्य पुस्तक ख़ुफ़िया अधिकारियों के एक कर्तव्यपरायणी अभियान का विवरण लगती है | ये ख़ुफ़िया अधिकारी विजय ढींगरा और राजेश कौशिक दो महिला अधिकारियों के साथ भारत – नेपाल के सीमावर्ती इलाक़ों में वर्षों से चल रहे देशघाती गतिविधियों का शमन करने में सफल होते हैं | ये जमूरा , जमूरी , मदारी , मदारिन बनते हैं | जमूरा मदारी को उस्ताद कहता है | 
उपन्यास में लघुकथाओं जैसी भी अनूठी मिठास का एहसास उपन्यास के पाठन के दौरान कई बार होता है, जो इसे रुचिकर बनाए रखता है | सामाजिक समस्याओं के साथ पुस्तक में इतर बातों का समावेश पुस्तक की गरिमा बढ़ाता है | 
कुछ मिसालें पेश हैं –
 – ‘ जय हो सरकार की भैया इस खाली टाइम में एक मोबाइल का ही सहारा रहता था चलो अब उससे भी छुट्टी मिला… ‘
‘ इसमें सरकार की कौनो गलती नहीं है उस्ताद…! इसके लिए वो जो अपना पप्पुआ है न जो यहाँ का टॉवर मैन है। लाइट जाने पर तेल बचाने के चक्कर में वो टॉवर का जनरेटर चलाता नहीं है तो नेटवर्क आएगा कहाँ से…? ‘  [ पृ. 9 ]   
– – अपने देश में बिगड़ा हुआ काम हो या आदमी उसके लिए कोई न कोई फलाँ-ढिका ही जिम्मेदार होता है। बच्चे बिगड़े तो मोबाइल ने बिगाड़ दिया, टीवी ने बिगाड़ दिया। बेटे ने माँ बाप का सुनना छोड़ दिया तो बीवी ने बिगाड़ दिया। बीवी बिगड़ जाए तो पड़ोसी की बहू ने बिगाड़ दिया। ये हमारी सभ्यता का एक ऐसा कारण है जिसका कोई निवारण नहीं है। [ पृ. 13 ]
– गायें और बैल लोगों ने अपने गाँव – घर से दूर ले जाकर छोड़ दिये थे। इस गांव वाले जानवर इस गांव में छोड़े गए थे और इस गाँव के जानवर इस गाँव में… छुट्टे जानवरों की संख्या इतनी थी खेतों की बिना तारबंदी किये अनाज का एक दाना भी घर आना मुश्किल था। छुट्टों की समस्या से हर कोई परेशान था। हालांकि ये जानवर खुद उनके ही छोड़े हुए थे लेकिन सब इनकी समस्या को लेकर सरकारों को कोस रहे थे। [ पृ. 14 ]
– ‘सुना है कि कोई एक मूवी आई है ‘कश्मीर फाइल्स’ जिसमें कश्मीरी
पंडितों की समस्याओं को बहुत जोर-शोर से उठाया गया है ?’ ‘हाँ आई तो है उस्ताद और उसपर बड़ा हो-हल्ला भी मच रहा है । ‘ ‘लेकिन इससे इस देश को और कश्मीरी पंडितों को क्या फायदा होगा?’ ‘क्या पूछ रहे उस्ताद ! जिस प्रकार महाभारत देखकर पूरा भारत वर्ष कर्मयोगी हो गया था। फिर रामायण देखकर मर्यादा पुरुषोत्तम हुआ उसके बाद हरिश्चन्द देखकर सत्यवादी हुआ ठीक उसी तरह द कश्मीर फाइल्स देखकर भी हेन तेन जो कुछ भी समझ लो वो सब हो जाएगा | 
[ पृ. 17 ]
– ‘ पर वो तो मजदूरी करने जाती नहीं थी ये कब से करवाने लगे उसे ?’ ‘कुछ नहीं उस्ताद ! बस जॉब कार्ड बनवा लिया था तो प्रधान जी उसकी भी दिहाड़ी चढ़ा दिया करते हैं। जब पैसा आता है तो निकालकर दोनों आधा आधा कर लेते हैं।’
‘पर ये तो गलत है न भाई ? ‘
अब क्या सही क्या गलत उस्ताद ! जब हजारों का फायदा हो रहा है तो इस पाप को काटने के लिए कुछ इक्कीस इक्यावन का प्रसाद चढ़ा देंगे और क्या?’
[ पृ. 76 ]
उपन्यासकार ने उपन्यास का ताना – बाना बड़े ही मनोयोग से बुना है | उनके अन्य उपन्यास ” हारता नायक ” की भाँति यह भी चर्चित और साहित्य में अपना स्थान बनाने में सफल होगी , ऐसी पूरी आशा है | यह पुस्तक न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है | फॉन्ट उत्तम है , किन्तु प्रूफ शोधन की ओर पर्याप्त ध्यान देने  आवश्यकता है | 
– Dr RP Srivastava 
Editor-in-Chief, bharatiyasanvad.com

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