ज़बाने हाल से अशफ़ाक की तुर्बत ये कहती है,

मुहिब्बाने वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है?

बहुत अफ़सोस होता है बड़ी तकलीफ़ होती है,
शहीद अशफ़ाक की तुर्बत है और धूपों का साया है।
शहीद अशफ़ाक उल्लाह खां ने अपनी इस रचना के द्वारा अपनी शहादत का ऐलान कर दिया था। इस रचना के काफ़ी समय बाद सोमवार, 19 दिसम्बर 1927 को उन्हें फांसी दी गई। उनके अंतिम शब्द थे, ” मेरे ये हाथ इन्सानी ख़ून से नहीं रंगे, खुदा के यहां मेरा न्याय होगा।” जब शहीद अशफ़ाक उल्लाह खां का मृत शरीर फैज़ाबाद ज़िला कारागार से शाहजहांपुर लाया जा रहा था, तब लखनऊ स्टेशन पर गाड़ी बदलते समय वरिष्ठ पत्रकार एवं क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी बीमारी के बावजूद चलकर आए और उनके पार्थिव शरीर पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। पारसी शाह फोटोग्राफर से शहीद की मैय्यत का फोटो खिंचवाया और शहीद के परजनों को यह हिदायत देकर कानपुर लौट गए कि शाहजहांपुर में इनका पक्का मकबरा ज़रूर बनवा देना। अगर रुपयों की ज़रूरत पड़े, तो पत्र लिख देना। मैं कानपुर से मनीऑर्डर भेज दूंगा।
मकबरा बना। शहीद की खाहिश के मुताबिक़ शहीद का एक शेअर संगमरमर पत्थर पर लिखाकर क़ब्र पर लगाया गया शेअर यह है –
ज़िंदगी बादे फना तुझको मिलेगी हसरत,
तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।
एक विशेषांक हेतु मैंने शहीद के परिजनों से उनकी डायरी के कई पन्नों की फोटो कॉपी मंगाई थी, जिनमें से कुछ अब भी मेरे पास सुरक्षित हैं। इन पन्नों में अधिकतर अशआर हैं। इस समय पितृपक्ष चल रहा है। खुदा तआला उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.. सादर नमन !
– Dr RP Srivastava

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