सिद्ध शक्तिपीठ मां पाटेश्वरी का मन्दिर देवी पाटन उत्तर प्रदेश के बलरामपुर ज़िले में तुलसीपुर रेलवे स्टेशन से पश्चिमोत्तर लगभग एक किलोमीटर पर सिरिया [ सूर्या / रामगंगा ] नदी के पूर्वी तट पर स्थित है | यह पूरे देश के विभिन्न भागों में अवस्थित 51 शक्तिपीठों में 26 वां है और इनमें इसका विशिष्ट स्थान है | यह शक्तिपीठ युगों से शक्ति की प्रतीक दुर्गा – जाग्रत भगवती पीठ के रूप में सुख्यात है | देवी भागवत पुराण में वर्णित है –
पटेन सहित: स्कन्ध: पपात यत्र भूतले।
तत्र पाटेश्वरी नाम्नाख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।
इस श्लोक के अनुसार , माता सती का वाम स्कन्ध पट सहित इसी स्थान पर गिरा था | अतः यह शिव और सती के प्रेम का प्रतीक स्वरूप है। देवी भागवत पुराण के छठे स्कन्ध के 16 , 17 और 30 वें अध्यायों में मां पाटेश्वरी देवी के माहात्म्य का वर्णन है | देवी पुराण के नवें स्कंध में भी मां पाटेश्वरी की महिमा का सुंदर चित्रण है | विलियम विल्सन हंटर [ ब्रिटिश अधिकारी ] ने 1885 ई . में प्रकाशित अवध गजेटियर [ Oudh Gazetteer ] में इस सिद्ध पीठ की लोक जीवन में महत्ता और मान्यता पर विस्तृत प्रकाश डाला है | पौराणिक कथाओं के अनुसार , यह स्थल भी भगवान शिव और सती [ पार्वती ] के अगाध – अनुपम प्रेम का प्रतीक है | अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अपने पति भगवान शिव को आमंत्रित न किये जाने से सती जी बहुत नाराज हुईं और भगवान का अपमान उन्हें सहन न हुआ , तो अपने प्राण त्याग दिए | इस घटना से क्षुब्ध होकर भगवान शिव ने दक्ष के यज्ञ – अनुष्ठान को विध्वंस कर डाला एवं सती के शव को अपने कंधे पर रखकर तीनों लोक में घूमने लगे, तो संसार-चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तब विष्णु ने सती-शव के विभिन्न अंगों को सुदर्शन-चक्र से काट-काटकर भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों पर गिरा दिया। पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ सती के शव के अंग गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हुए। सती का वाम स्कन्ध पाटम्बर अंग यहाँ आकर गिरा था, इसलिए यह स्थान देवी पाटन के नाम से प्रसिद्ध है। [ स्कन्द पुराण ]

देवी पाटन की देवी का दूसरा नाम पातालेश्वरी देवी के रूप में प्राप्त होता है। कहा जाता है कि माता सीता लोकापवाद से खिन्न होकर यहाँ धरती-माता की गोद में बैठकर पाताल में समा गयी थीं। इसी पातालगामी सुंग के ऊपर देवी पाटन पातालेश्वरी देवी का मंदिर बना है। यह धार्मिक मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम रावण – संहार के बाद अपनी अर्धांगिनी देवी सीता को लेकर जब अयोध्या आए , तो उन्हें पुन: अग्नि परीक्षा देनी पड़ी , हालांकि लंका में ही उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर परीक्षा दे दी थी। सीता को काफ़ी दु:ख हुआ। उन्होंने अपनी माता धरती से विनय किया कि यदि वे वास्तव में सती हैं तो यहीं धरती फट जाएं एवं धरती माता उन्हें अपने में समाहित कर लें। इतना कहते ही ज़मीन फट गयी और एक सिंहासन पर बैठकर धरती मां पाताल लोक से ऊपर आयीं। अपनी धरती मां के साथ सीता जी भी पाताल लोक चली गयीं। इसलिए इस स्थान का नाम पातलेश्वरी देवी पड़ा, जो कालांतर में पाटेश्वरी देवी नाम से विख्यात हुआ। इस तरह देवीपाटन सिद्ध योगपीठ तथा शक्तिपीठ दोनों है।
इस पावन पीठ का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है। मान्यता के अनुसार दानवीर कर्ण ने भगवान परशुराम से इसी स्थान पर स्थित पवित्र सरोवर में स्नान कर शास्त्र विद्या की शिक्षा ली थी। भगवान परशुराम ने यहीं तपस्या की थी। द्वापर युग में सूर्यपुत्र कर्ण ने भी यहीं भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की दीक्षा ली थी। कहते हैं कर्ण मंदिर के उत्तर स्थित सूर्यकुड में प्रतिदिन स्नान कर उसी जल से देवी की आराधना करते थे। वही परंपरा आज भी चली आ रही है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा कर्ण ने कराया था। औरंगजेब ने अपने सिपहसालार मीर समर को इसे नष्ट और भ्रष्ट करने का जिम्मा सौंपा था, जो सफल नहीं हो सका और देवी प्रकोप का शिकार हो गया। उसकी समाधि मंदिर के पूरब बाजार में आज भी अवस्थित है। इसे समरधीर [ समर मीर ] की समाधि कहते हैं , जहाँ विरोध स्वरूप सूअर की क़ुरबानी दी जाती थी ,जो अब बंद कर दी गयी है | अब केवल प्रतीक स्वरूप क़ुरबानी होती है | इस कब्र को धंवर सिरी का थान भी कहा जाता था | मैंने बचपन में कई बार इस थान पर लोगों को सुअरों की बलि देते हुए देखा है | यह भी कहा जाता है कि सिपहसालार मीर समर ने मन्दिर का कुछ हिस्सा खंडित कर दिया था, जिसका सम्राट विक्रमादित्य द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया था |
मंदिर के गर्भगृह में पहले कोई प्रतिमा नहीं थी। इसी गर्भगृह पर माता का भव्य मंदिर बना हुआ है। आज भी मंदिर में पाताल तक सुरंग बताई जाती है, जो चांदी के चबूतरे के रूप में दृष्टिगत है। इसी के नीचे सुरंग है |गर्भगृह के ऊपर मां पाटेश्वरी की प्रतिमा व चांदी का चबूतरा के साथ कई रत्नजडित छत्र है और ताम्रपत्र पर दुर्गा सप्तशती अंकित है। प्रसाद पहले इसी चबूतरे पर चढ़ाया जाता था ,लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से अब प्रसाद बाहर चढ़ाया जाता है। चबूतरे के पास एक भव्य दुर्गा प्रतिमा स्थापित है। लेकिन गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है | चबूतरे के ऊपर कपड़ा बिछा रहता है , जिस पर श्रद्धालु फल – फूल – प्रसाद आदि चढ़ाते हैं | विशेष रूप से जो सामान देवी को अर्पित किये जाते हैं , उनमें हैं नैवैद्य, नारियल , जायफल , धातु की आँख , छत्र – ध्वजा , धूपदीप , सिन्दूर , अंजीर , लौंग और अक्षत | मन्दिर में हर समय घृत की दो अखंड ज्योतियाँ जलती रहती हैं | मन्दिर के परिक्रमा मार्ग में मातृ – गण के यंत्र विद्यमान हैं , जो शक्ति के उपासकों के लिए साधना के महत्वपूर्ण साधन बताये जाते हैं | संप्रति भुत – प्रेतादि की बाधाएं शांत करने के लिए यहाँ तंत्र – साधना होती है |देवी मन्दिर के आसपास भैरव , बटुक , शेषनाग , महादेव , हनुमान , कालिका , शीतला , चंद्रशेखर और अन्नपूर्णा आदि के भी मन्दिर हैं | देवी मंदिर के उत्तर में सूर्य कुंड है।
यहीं भगवान शिव की आज्ञा से महायोगी गुरु रतननाथ ने सर्वप्रथम देवी की पूजा-अर्चना के लिए एक मठ का निर्माण कराकर स्वयं लंबे समय तक माँ पाटेश्वरी की पूजा करते हुए साधनारत रहे। वे अपने योगबल से प्रतिदिन नेपाल की दांग पर्वत – श्रंखलाओं से कठिन पहाड़ी के रास्ते से आकर देवी की आराधना किया करते थे। माता जी ने प्रसन्न होकर एक बार उनसे वरदान मांगने के लिए कहा, तो रतननाथ ने कहा, “माता, मेरी प्रार्थना है कि आपके साथ यहाँ मेरी भी पूजा हो। देवी ने कहा, “ तथास्तु ‘ [ ऐसा ही होगा।] तभी से यहाँ रतननाथ का दरीचा बना हुआ है। दरीचे में पंचमी से एकादशी तक रतननाथ की पूजा होती है। इस अवधि में घंटे और नगाड़े नहीं बजाये जाते हैं। देवी की पूजा केवल रतननाथ के पुजारी ही करते हैं। यह सिद्ध शक्तिपीठ के साथ-साथ नाथ संप्रदाय के आदरणीय , सिद्ध योगियों की योगपीठ भी है।
यहाँ चैत्र-मास का नवरात्रि-पर्व एक महीने तक चलता है और ‘ नमो नमो पाटन की माई ‘ का जयघोष निनादित रहता है | इस अवसर पर वीर रतननाथ बाबा की सवारी नेपाल के दांग जिले के चौधरा नामक स्थान पर स्थित श्री रतन मठ से पदयात्रा करके मठ के योगीश्वरों [ महंतों ] द्वारा हर वर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन माँ पाटेश्वरी के दरबार पाटन में लायी जाती है। देवी पाटन मन्दिर प्रबन्धन की ओर से योगीश्वरों के रहने – ठहरने , खान – पान आदि का उत्तम प्रबंध किया जाता है | एकादशी के दिन योगीश्वरों को विदाई दी जाती है | मन्दिर के आगत योगियों और साधकों आदि के सत्कारादि की व्यवस्था मन्दिर के चढ़ावे , जनकपुर और पाटन में स्थित कृषियोग्य भूमि से प्राप्त आय से होती है | मन्दिर के व्यवस्थापक एवं महंत महोदय बड़े ही मिलनसार हैं | वे हर अतिथि आगन्तुक का बड़ा खयाल रखते हैं | मेला – प्रबंध में आपकी महत्वपूर्ण रहती है | एक माह के मेले में दूर – दूर से दुकानें आती हैं और मनोरंजन के उपादान यथा सर्कस , काला जादू , थियेटर , टाकीज आदि लगाए जाते हैं |

– Dr. R P Srivastava

Editor-in -Chief, www.bharatiyasanvad.com

 

कृपया टिप्पणी करें