विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद का अमेरिका प्रवास के समय हेल परिवार से बहुत स्नेहपूर्ण संबंध रहा। हेल दंपत्ति की दो पुत्रियों – मैरी हेल और हैरियट हेल और दो भतीजियों – ईसावेल मैकिंडले और हैरियट मैकिंडले को विश्वगुरु से सगे बड़े भाई सा स्नेहिल प्यार मिला। प्रस्तुत कविता उन्होंने इन्हीं बहनों को संबोधित करते हुए लिखी थी —
बहन मैरी, दुःख न मानो!
जो प्रताड़न दिया मैंने,
जानती तो तुम भली विधि।
किंतु फिर भी चाहती हो, मैं कहूं!
स्नेह करता मैं तुम्हें संपूर्ण मन से।
प्रकृति की त्योरियां चढ़ें,
जैसे अभी वह कुचल देगी,
किंतु मेरे आत्मन हे, दिव्य हो तुम,
बढ़ो आगे और आगे,
नहीं दाएं और बाएं तनिक देखो,
दृष्टि हो गंतव्य पर ही।
देवदूत, मनुज, दनुज की हूं नहीं मैं,
देह या मस्तिष्क, नारी या पुरुष भी,
ग्रंथ केवल मूक, विस्मित,
देखते हैं प्रकृति मेरी, किंतु मैं ‘ वह ‘,
बहुत पहले, बहुत पहले,
जबकि रवि, शशि और उडुगन भी नहीं थे
इस धरा का भी न था, अस्तित्व कोई,
बल्कि यह जब समय भी नहीं जन्मा था,
मैं सदा था, आज हूं और आगे भी रहूंगा।
तत्त्व केवल एक मैं ही,
है कहीं न अनेक, मैं ही एक।
अतः मुझसे ही सभी ‘ मुझ ‘ हैं
मैं स्वयं से घृणा कर सकता नहीं,
प्यार , प्यार है, है मुझे संभव।
उठो, जागो स्वप्न से, तोड़ दो बंधन,
चलो निर्भय,
यह रहस्य, कुहेलिका,
छाया डरा सकती न मुझको,
क्योंकि मैं ही सत्य,
जानो तुम सदा यह।
( विश्वगुरु विवेकानंद, लेखक – एम आई राजस्वी, पृष्ठ 341, 342 )

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