अनुभूतियों और संवेदनाओं के कुशल व ख़ूबसूरत चितेरे, हिन्दी के प्रतिष्ठित रचनाकार अख़लाक़ अहमद ज़ई का उपन्यास ” सोख़्ता ” कमाल का है | इसे लघु उपन्यास कहना बेमानी है | इसमें उपन्यास के सभी गुण मौजूद हैं , जो इसे प्रौढ़ता और दीर्घता की ओर ले जाते हैं | ज़ाहिर कि कोई उपन्यास ज़ख़ामत के लिहाज़ से छोटा हो , तो वह लघु उपन्यास नहीं कहलाता,अपितु वह उपन्यास लघु उपन्यास कहलाता है, जिसका कथानक कुछ तंग होने के साथ कहानी का कुछ विस्तार मात्र हो और बीस हज़ार शब्दों से कम हो | इस पैरामीटर से ” सोख़्ता ” बाहर है |
” सोख़्ता ” वस्तुतः अर्ध आत्मकथ्यात्मक – संस्मरणात्मक सामाजिक उपन्यास है , जिसका रूप चरित्रात्मक और नाटकीय है | इस उपन्यास की लक्षण योजना अन्य उपन्यासों की भाँति है , लेकिन है यह आत्मकथ्यात्मक कहानी का दीर्घ रूप , जिसमें उपन्यासकार ने कहीं – कहीं वास्तविक नामों का भी प्रयोग करके इसे अर्ध ऐतिहासिक बना दिया है | उपन्यासकार के शब्दों में –
” कहानी के अंतर्विरोधों और चारित्रिक विषमताओं के चलते मुझे ” सोख़्ता ” को मात्र लंबी कहानी बनाकर नहीं छोड़ना था | मैंने इसमें कई जीवित पात्रों को भी समेटा , जिन्हें मैं उनकी विशेषताओं के हमेशा ज़िंदा रखना चाहता था | ” [ ” मेरी बात ” ]
सच है , कहानी बढ़कर उपन्यास बन सकती है , किंतु उपन्यास कहानी नहीं बन सकता | उपन्यास में विशेषकर तीन पात्रों के इर्द – गिर्द पूरे कथाक्रम को समेटा गया है | पहला अफ़रोज़ , जो लगता है उपन्यासकार ही है , दूसरा डॉ. सादिक़ है , जो अफ़रोज़ का मित्र है और प्राइवेट क्लीनिक चलाता है , तीसरा दानिश है , जो अफ़रोज़ की तरह पत्रकार है , और तरन्नुम , अफ़रोज़ की बड़ी बहन |
 डॉ. सादिक़ का चित्रण बहुत सकारात्मक है , लेकिन वह मुस्लिम समाज की मर्यादा की रेखा को ख़ुद व्यवहार में लाकर सिद्ध करता है और अपने मित्र अहमद की पत्नी तबस्सुम को तलाक़ दिलवाकर स्वयं उससे शादी कर लेता है | डॉ. सादिक़ , अफ़रोज़ बताता है कि ” अफ़रोज़ , तुम्हें ताज्जुब होगा कि उसने [ अहमद ने ] अपने सामने अपनी बीवी को मेरे साथ सुलाया है | ” [ पृ. 9 ] ज़ाहिर है , इस्लाम इसकी अनुमति नहीं देता |
अफ़रोज़ की बड़ी बहन तरन्नुम शादी संबंधी समस्याओं को लेकर इतनी चिंतित और फ़्रस्ट्रेट है कि अंततः तालाब में कूद कर आत्महत्या कर लेती है | उसकी शादी के आयोजन में अधिक बारातियों के आने से स्वागत – सत्कार आदि में जो कथित कठिनाई हुई , उसके कारण उन लोगों ने लड़की को विदा नहीं कराया | वधू पक्ष का कहना उचित ही है –
” हम लोगों ने तो अपनी औक़ात देखकर ही बात की थी , फिर भी अपनी मर्ज़ी से इतने बारातियों को लेकर आए | इसके बावजूद हम लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी | शादी में तो किसी ने कोई शिकायत नहीं की | अब वहां जाकर इतनी लंबी – चौड़ी बातें निकल रही हैं | ” [ पृ. 22 ] …. ” अगर उनको दहेज चाहिए था , तो पहले ही बात कर लेते | दूसरे की ज़िंदगी बरबाद करने का क्या हक़ था ?” [ पृ. 23 ]
दानिश भी अफ़रोज़ का मित्र है | पत्रकार है | जौनपुर के दैनिक ” दर्पण ” में अफ़रोज़ ने उसके ही तवस्सुत ज्वाइन किया था खेल संपादक के रूप में | लेकिन दानिश के बदले हुए व्यवहार ने उसे वहां से हटने के लिए बाध्य किया | समीक्ष्य उपन्यास में पत्रकारिता के पेशे की दिक़्क़तें खुलकर आई हैं | ख़ासकर छोटे अख़बारों में पत्रकारों का किस प्रकार शोषण होता है, उसके कुछ नमूने इसमें आ गए हैं | यह एक बेजोड़ उपन्यास है , जो हिंदी साहित्य में अवश्य समादृत होगा और विशिष्ट स्थान बनाएगा , ऐसी आशा एवं कामना है |
दीक्षा प्रकाशन , दिल्ली से 2019 में प्रकाशित इस पुस्तक में छपाई , लेआउट और प्रूफ संबंधी अनेक ख़ामियाँ हैं , जिनकी ओर उपन्यास के नए संस्करण में ध्यान देने की ज़रूरत है |
– Dr RP Srivastava
Editor-in- Chief, Bharatiya Sanvad

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