दंगे में जो लाश गिरी वो मेरी ही तो थी,
हम हिंदू मुस्लिम का बहाना कब तलक बनाते ?
– अनथक
पूर्व पुलिस अफसर और हिंदी साहित्यकार विभूति नारायण राय की पुस्तक ” हाशिमपुरा 22 मई ” पढ़ने को मिली। इस पुस्तक पर सबसे ऊपर लगभग 36 प्वाइंट में यह भी लिखा है, ” स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा हिरासती हत्याकांड “। पुस्तक के अनुसार, 22 मई 1987 को यह संहार हुआ था, जिसमें पचास मुस्लिम नवजवानों को हिरासत में लेकर एक – एक कर गोली मारी गई। इस संहार में 42 की मौत हो गई। वास्तव में यह संहार देश और समाज को एक बड़ा काला दाग़ दे गया। यह पुस्तक घटना के 33 वर्षों के बाद 2020 में आई हिंदी में। लेखक ने इसके ” प्राक्कथन ” में बताया है कि मूल रूप से हिंदी में लिखी इस फिक्शन रूपी पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद इसके तीन वर्ष पूर्व ही आ चुका है। इस प्रकार अंग्रेज़ी में यह 2017 में ही आ गई थी। उस वक्त तक इस हत्याकांड पर दिल्ली हाईकोर्ट का अंतिम फ़ैसला नहीं आया था, जिसमें बचे हुए 16 दोषी और पूर्व पी ए सी कर्मियों की ज़मानतें ख़ारिज करते हुए उनको आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। सब पर दस – दस हज़ार का जुर्माना भी लगाया गया। स्वाभाविक था कि जब यह पुस्तक अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई, तब इसकी कतई गुंजाइश नहीं थी कि इस मामले की अंतिम परिणति का उल्लेख किया जाता और पुस्तक में आए सहज आक्रोश और दोषारोपण को कम किया जाता। मगर जब यह हिंदी में 2020 में आई , तो इसकी पूरी गुंजाइश थी कि इसमें अंतिम फ़ैसले का उल्लेख किया जाता और किसी भी रूप में कुछ लिखा जाता। यह पदेन लेखकीय ज़िम्मेदारी थी, जो अदा नहीं हो पाई। ऐसे में तल्खियां ही तल्खियां रह गईं।
वैसे यह पुस्तक अपने विषय का दुर्लभ दस्तावेज़ है, जिसके लेखन में लेखक ने बहुत श्रम किया है, जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं और सदा – सर्वदा रहेंगे। बकौल लेखक, ” इस छोटी – सी किताब को ख़त्म करने में मुझे दस से अधिक वर्ष लग गए ” ( भूमिका )। अच्छा होता, यह पुस्तक हत्याकांड के बाद ही आई होती और उस स्थिति में साक्ष्य की भूमिका निभाकर अदालती कार्रवाई को गति प्रदान करती। वैसे लेखक को इस मामले में सक्रियता के कारण तत्कालीन सरकार / सरकारों का कोपभाजन भी बनना पड़ा।
 नरसंहार की यह घटना सर्वथा निंदनीय है। वैसी ही बर्बर क्षोभकारी और अति निंदनीय, जैसी हम्फ्रीगंज ( अंडमान ) की 1944 की दुखद घटना थी, जिसमें 44 भारतीयों को एक साथ खड़ा करके जापानी सेना ने गोलियों से भून दिया था। ये सभी क्रांतिकारी थे। दिसंबर 1944 के बाद आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन हुआ था। उस समय जापानी सेना अंडमान – निकोबार में राष्ट्रवादियों पर मुसलसल अत्याचार कर रही थी। इसी दौरान 1944 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस वहां गए। पोर्टब्लेयर में दो दिन ठहरे, ताकि जापानी सेना किसी हद तक प्रभावित होकर अपनी ज़ालिमाना कार्रवाइयों पर कुछ ब्रेक लगाए, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। बर्बरता जारी रही। नेताजी के लौटने के एक महीने बाद कुछ लोगों ने सेना की बर्बरता के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। इसके बाद इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के 44 सदस्यों को सामूहिक रूप से मौत के घाट उतार दिया गया। उन पर जासूसी करने का आरोप मढ़ा गया।
स्वतंत्र भारत में सुरक्षा बलों पर ये आरोप छूटे नहीं। किसी न किसी तौर मौजूद रहे और हैं। यह और बात है कि इनका आनुपातिक घनत्व न्यूनाधिक हो। यहां स्थान गिनाने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है। सभी जानते हैं, किंतु यहां एक अति अमानवीय और संवेदनशील कांड का उल्लेख ज़रूर करना चाहता हूं। भागलपुर जेल में पुलिसवालों ने 33 विचाराधीन कैदियों की दोनों आंखों में आठ – नौ इंच का सुआ ( सूजा , स्थानीय बोली में टकुआ ) घुसाकर पुतलियां निकालकर, फिर उनमें तेज़ाब डालकर अंधा बना डाला गया। जिनके बारे में वहां बुलाए गए हैवान डाक्टरों ने कहा कि अभी उनकी आंखों में कुछ दृष्टि बाक़ी है, उनकी आंखों में पुनः तेज़ाब डाला गया। हैवानियत की इंतिहा कर दी पुलिस वालों ने। मैं किसी घटना को हिंदू मुस्लिम के ऐंगल से नहीं देखता, लेकिन ये सभी हिंदू थे। इसके भुक्तभोगी 70 वर्षीय उमेश यादव अभी ज़िंदा है और भागलपुर के कुप्पाघाट में रहते हैं। अन्य 17 लोग अभी जीवित बताए जाते हैं, जो चलती – फिरती लाश जैसे हैं। एक तरह से जीवन न जीने के बराबर !
कहते हैं, पुलिसवालों ने अपनी सनक और हनक में ऐसा किया। उक्त घटना से पहले ही त्वरित न्याय के सनकीपन में पुलिस ने 1979 से ही यह नृशंस चक्र चला रखा था और अपनी “हिट लिस्ट” के हिसाब से नामितों को थानों में बुलवाकर या उठवाकर वह लोगों को अंधा करती रही। अपराधियों को साफ़ करने का आपरेशन ” गंगाजल ” चलता रहा।
 जेल के अंखफोड़वा कांड के बाद भी यह काला दौर जारी रहा। एक अनुमान के अनुसार, दो साल में सौ से अधिक चंगेजी पुलिस के शिकार बने। आज कुछ लोग उत्तर प्रदेश में कुछ कार्रवाई पर उद्वेलित हो उठते हैं, उनके सामने यह कांड भी रहे, तो अच्छा रहे। इस मामले में तात्कालिक कार्रवाई कोई ख़ास नहीं ! केवल एस एस पी आर बी राम हटाए गए और उनकी जगह वी डी राम एस एस पी बनाए गए, जिन्होंने
26 अप्रैल 1880 को चार्ज लिया। फिर भी पुलिस की यह हरकत नहीं रुकी। रुकी जब , तब दैनिक ” आज ” ने इसके बारे सबसे पहले अपनी लीड स्टोरी बनाई। ” आर्यावर्त ” और ” Search Light ” दोनों पिछड़ गए। ये दोनों हिंदी – अंग्रेज़ी के दैनिक जो पटना के ही फ्रेजर से प्रकाशित होते थे, मुंह तकते रह गए। ये दोनों पत्र दरभंगा नरेश के थे, जो कांग्रेसी थे। संभव है, जान – बूझकर इस स्कूप ख़बर को छोड़ दिया गया हो। बड़ी मुश्किल से तो सत्ता मिली थी। कांग्रेस ने जगन्नाथ मिश्र ने लंबी जिद्दोजहद के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। जनता पार्टी के महारथी टूट – फूट कर निष्क्रिय हो चले थे। ऐसे में पार्टी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी।
ख़ैर, इस स्कूप ख़बर ने ” आज ” को पटना में जमाने में काफ़ी मदद की। फिर अन्य अख़बारों ने भी छापा। सांसद में उठा। उस समय जनता की आवाज़ उठाने के लिए केवल प्रिंट मीडिया हुआ करती थी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि अपने ही देश के नागरिकों के साथ ऐसा कोई कैसे कर सकता है ?
पुलिस की इस हरकत पर कोई ख़ास न्याय नहीं हो सका। जो 15 पुलिसकर्मी आरोपित किए गए, उनमें से केवल दो सज़ा के भागी हुए। सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ितों को पचास – पचास हज़ार का मुआवज़ा देने और प्रतिमाह 750 रुपए देने का फैसला सुनाया। हां, प्रकाश झा ने जरूर फिल्म बनाई ” गंगाजल ” और अरुण शौरी ने अपनी आत्मकथा में इसके बारे में लिखा ” The Commissioner for lost causes ” में।
ऐसी ही मर्मांतक हरकत है हाशिमपुरा और मलियाना की। हाशिमपुरा कांड में तो 31 अक्तूबर 2018 को दिल्ली हाईकोर्ट ने बचें 16 दोषियों को कंविक्ट किया और बहुत ही देरी से एक तरह से कुछ इंसाफ़ मिला, मगर यह अपराध के मद्देनज़र मामूली है। ये सब मृत्युदंड के ही पात्र थे। रही बात मलियाना की, तो उसमें तो अब तक कुछ ख़ास हो नहीं पाया है। कोई आवाज़ उठानेवाला नहीं, सियासत दुनिया भर की, बातें बाछें फाड़ – फाड़कर… हिमायतियों की पूरी लश्कर, मगर किस काम की …!!??
हाशिमपुरा , मलियाना समेत आसपास के इलाकों में हिंसा में उस वक्त सरकारी आंकड़ों के हिसाब से कुल 174 लोग मारे गए और 171 घायल हुए। गैर सरकारी आंकड़ों में जान से मारे गए लोगों की संख्या 350 से अधिक थी। करोड़ों की संपत्ति के नुक़सान का अनुमान लगाया गया। 23 मई 1987 को मलियाना में जो नरसंहार हुआ, उसमें पी ए सी के जवानों पर 72 लोगों को मौत के घाट उतारने और 106 मकानों को जलाने का आरोप लगा। ये सब मामले संसद और उत्तर प्रदेश विधानसभा व विधानपरिषद में उठे, जहां मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने दोषियों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाई का आश्वासन दिया, लेकिन हुआ कुछ नहीं ! चंद्रशेखर ने इसे लोकसभा में उठाया, मगर लाहासिल ! लीपापोती ही की गई।
सरकारी पक्ष पर्दे के पीछे और कभी बाहर से दोषियों को मदद करते पाया गया। विभूति नारायण राय ने इस बात की ओर भी इंगित किया है।
उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हाशिमपुरा समेत सभी हत्याओं की जांच के लिए सी बी आई जांच के आदेश दिए थे। इस जांच एजेंसी ने 28 जून 1987 को जांच शुरू की थी और रिपोर्ट भी सौंपी, जिसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है !!!
आश्चर्य है, इस बारे में राय की पुस्तक ” हाशिमपुरा 22 मई ” में ख़ामोशी है ! लेकिन उनका दावा बहुत बड़ा है। वह यह कि ” मुझे ऐसे बहुत से दस्तावेज़ देखने को मिले, जिन तक किसी पेशेवर पत्रकार की पहुंच मुश्किल होती। ” ( भूमिका, पृष्ठ 13 ) ज़ाहिर है यह उनका बड़बोलापन है। पत्रकार को सब सुलभ हो जाता है और पुलिस को कोई जल्दी कुछ बताता नहीं है। पुलिस अफ़सर को तो और भी नहीं। ऐसे में सच्चाई आम तौर पर नहीं आ पाती है। विभूति नारायण राय की कोशैश हर हाल में सराहनीय है। उन्होंने जो कारनामा अंजाम दिया है पुस्तक लिखकर और इस संहार के प्रति गहरी दिलचस्पी दिखाकर, उसका बदल केवल परमात्मा ही दे सकता है। मनुष्य के बस की बात नहीं ! मानवता के प्रति उनके उपकारों का सही सिला ईश्वर ही के पास है। हम तो केवल प्रार्थना कर सकते हैं और करनी भी चाहिए।
राय की इस पुस्तक में दो बड़ी कमियां हैं। पहली इसमें हाशिमपुरा समेत आसपास के अन्य कांडों की जांच
 सी बी आई जांच का कोई उल्लेख नहीं। दूसरी सबसे बड़ी चूक इन दंगों की न्यायिक जांच का भी कोई ज़िक्र नहीं किया गया है, जिसका आदेश उत्तर प्रदेश सरकार ने दिया था। मेरे मित्र सैयद शहाबुद्दीन, जो दंगे के समय लोकसभा सदस्य भी थे, के प्रयासों से ही हाशिमपुरा और अन्य मामलों में न्यायिक प्रगति हुई। फिर भी हाशिमपुरा का अंतिम फ़ैसला आखिरकार आया, लेकिन अन्य जघन्य कांड दब गए। शहाबुद्दीन मुझे जांच की हर प्रगति की जानकारी देते थे। हर ऐसे प्रोग्राम में इन्वाइट करते। चंद्रशेखर और सुब्रह्मण्यम स्वामी की उपस्थिति में पी ए सी फायरिंग में मारने से बचे जुल्फिकार नासिर को जब पत्रकारों के सामने बयान के लिए शहाबुद्दीन ने पेश किया, तो उसमें मुझे भी बुलाया था और मैं गया भी था। प्रेस कांफ्रेंस और इससे संबंधित अन्य बातों का उल्लेख राय ने भी किया है ( पृष्ठ 95 )।
राय ने शहाबुद्दीन के कंट्रीब्यूशन को कम करके आंका है, जबकि मेरा मानना है कि यदि शहाबुद्दीन न होते, तो हाशिमपुरा मामले की पैरवी ही नहीं हो पाती, जैसा कि अन्य मामलों में देखा गया कि पैरवी के अभाव ठंडे हो गए। ऐसी बात भी नहीं है कि सैयद शाहबुद्दीन उक्त सभी मामलों में प्रयास ही किया हो, किंतु यह भी कहना पड़ेगा कि हाशिमपुरा की ओर उनका जितना ध्यान था, अन्य मामलों के प्रति नहीं था। जहां तक मुझे याद है, जब उत्तर प्रदेश सरकार ने 1998 में जस्टिस सी डी पारिख आयोग की जांच रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालने का फ़ैसला किया,तो शहाबुद्दीन ने ही इससे खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील करवाई थी। सरकार के इस क़दम के विरोध में फजलुर्रहमान और अन्य ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। हाशिमपुरा, मलियाना आदि के उस समय के दंगे में सैकड़ों की जानें गई थीं और बड़े पैमाने पर जायदाद को नुक़सान पहुंचाया गया था। दंगे इतने भयानक थे कि एक साथ क़रीब 32 स्थानों पर कर्फ्यू लगाया गया था। इसकी जांच के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने जस्टिस सी डी पारिख की अध्यक्षता में आयोग बनाया था, जिसने सितंबर 1988 में अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में कई ऐसी बातें थी, जिनसे सरकारें तिलमिला उठी थी और कल्याण सिंह सरकार ने जांच रिपोर्ट पर आगे कोई कार्रवाई न करने का फ़ैसला कर लिया था।
जब शहाबुद्दीन के प्रयास से इसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया गया, तो सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश जारी किए। इस प्रक्रिया में समय अधिक लगा। यहां मैं यह भी बताता चलूं कि शहाबुद्दीन आई एफ एस थे और विशेषकर खाड़ी देशों में भारत के राजदूत/ उच्चायुक्त रह चुके थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले के खिलाफ़ चैलेंज की गई याचिका की ड्राफ्टिंग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फ़ैसला सुनाते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई तथा तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव को निर्देश दिया कि वे सभी राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए नोटिस जारी करें कि जांच आयोगों का उद्देश्य अधूरा न रहे। साथ ही उसने सरकारी हीला – हवालियों पर यह कहकर टिप्पणी की कि जांच रिपोर्ट पर जो तत्काल ध्यान देने की उम्मीद थी, वैसा नही किया गया। कार्रवाई में देरी पर दुख और चिंता प्रकट करते हुए उस समय के चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया ए एस आनंद, जस्टिस एस राजेंद्र बाबू और जस्टिस आर सी लाहौरी की खंडपीठ ने मेरठ, हाशिमपुरा, मलियाना के दंगों की न्यायिक जांच की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते के हवाले करने की प्रवृत्ति पर कहा कि राज्य सरकार इसकी रिपोर्ट को क्यों दबाए है। यह स्वस्थ परंपरा नहीं है। एक दशक बीत चुके हैं, मगर सरकार इसे नज़रअंदाज़ किए हुए है। कार्रवाई में देरी से संदेहों को बल मिलता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ” इस पर अमल जान बूझकर टाला गया। ” उल्लेखनीय है कि दंगों की जांच रिपोर्टों का अक्सर यही हाल हुआ है। भागलपुर, रांची – हटिया, जमशेदपुर, नेल्ली, नौगांव, जलगांव, भिवंडी,मुंबई ( श्रीकृष्ण आयोग ), अहमदाबाद आदि की जांच रिपोटें नहीं लागू की गईं। सुप्रीम कोर्ट की इस फटकार के बाद मामलों की तरफ़ सरकार कुछ संजीदा हुई थी, जो नाकाफी थी। मैंने लगभग बीसियों बार इस विषय पर संपादकीय लिखा है और दर्जनों बार अपने स्टॉफ से कवरेज करवाया है, जिनकी डिटेल फिर कभी…
विभूति नारायण राय ने अपनी सामर्थ्य के लिहाज़ से जिस सूक्ष्मता और तल्लीनता से काफ़ी देर से ही सही पुस्तक को जनसामान्य को अर्पित किया, उसके लिए वे बधाई के पात्र है और सदा रहेंगे। ” हाशिमपुरा 22 मई ” के ” प्राक्कथन ” में वे लिखते हैं कि ” क्या कल्पना की किसी उड़ान से यह माना जा सकता है कि धार्मिक विद्वेष के आधार पर मुसलमानों की हत्या में एक मुस्लिम कांस्टेबल भी शरीक होगा ? ” लेखक के कहने का आशय क्या है ? क्या वीर अब्दुल हमीद अब पाकिस्तानी सैनिकों को नहीं मारेंगे ? क्या अपने ” अनुशासन ” की अवहेलना करेंगे ? क्या पुलिस वाले ऐसा करते हैं कि अपने उच्चाधिकारी का कहा नहीं मानते ? बगावत करते हैं ? क्या एक पुलिस के पूर्व उच्च अधिकारी की यही नसीहत है, उचित नहीं है, इस प्रकार के सवाल उठाना, वह भी ” प्राक्कथन ” में ! क्या राम मनोहर लोहिया का वह कथन याद नहीं कि ” मुसलमानों ने मुसलमानों की जितनी हत्याएं की हैं, किसी और ने नहीं की। ” अतीत का भी और आज का भी यही इतिहास है !
लेखक की इतनी सक्रियता रही कि ” 10 से अधिक वर्ष लग गए इस पुस्तक को ख़त्म करने में। ” ( भूमिका ) पुस्तक को पढ़कर मुझे यह ज्ञात हुआ कि ” नगर के किनारे एक – एक को ( ट्रक से ) उतारकर मारा जाने लगा ” ( पृष्ठ 23 )। यह तथ्य मेरे लिए नया है। मुझे तो यही पता था कि पंक्तबद्ध कर उन पर फायर किया गया, तभी आठ लोग बच गए थे। एक – एक मारने पर शायद ही कोई बच न पाता।
 लेखक का वरिष्ठ संपादक राजेंद्र माथुर पर यह आरोप लगाना कि उन्होंने हाशिमपुरा की कवरेज नहीं छापी ( पृष्ठ 96), निरर्थक है। लेखक को यह पता नहीं कि अख़बारों में आज़ादी के बाद से ही संपादक की क्या ” व्यवस्था ” होती है ? जिसे प्रबंधन नहीं चाहता , उसे कोई नहीं छपवा सकता। बैनेट कॉलमैन सत्ता के प्रति प्रतिबद्ध रहे हैं। वैसे कभी नभाटा ने स्कूप छापा हो, किसी जानकारी में हो, तो मेरे ज्ञान में इज़ाफा करने का कष्ट करें। किसी वरिष्ठ पत्रकार पर ऐसे आरोप लगाना सर्वथा निंदनीय है। उन्होंने प्रयास किया होगा, जिसमें सफल नहीं हो पाए। फिर कोई प्रतिबद्ध पत्रकार प्रबंधन के खिलाफ़ ऐसे नहीं मुंह खोलता, जैसा लेखक चाहते हैं कि राजेंद्र माथुर चुप रह गए। वैसे भी राजेंद्र माथुर ने प्रबंधन का सामना किया और कहते है कि प्रबंधन के समीर जैन ने तनाव में डालकर उनकी जान ले ली। राजेंद्र माथुर से मेरा अच्छा परिचय रहा है। वे बड़े संवेदनशील व्यक्ति थे, लेकिन बाध्यताएं/ विवशताएं अपनी जगह होती हैं। विभूति नारायण राय ने उनकी आलोचना में कई पेज लगाए हैं, जो उचित नहीं लगता। जब माथुर ने एफ आई आर की कॉपी मांगी, तो उपलब्ध कराई जानी चाहिए, ताकि वे प्रबंधन को सहमत करने का प्रयास करते। कोई ऐसी ख़बर आज भी इसके बिना नहीं छपती। राय ने ख़ुद लिखा है कि उन्होंने अरुण वर्धन को एफ आई आर की कॉपी उपलब्ध कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर भी बकौल लेखक उनकी सक्रियता की बात वीर बहादुर सिंह को पता चल गई और उन्हें उनका कोपभाजन बनना पड़ा।
 राय यह लिखकर अतिशयोक्ति में चले जाते हैं कि हाशिमपुरा मामले में समाज के ” सब ” साम्प्रदायिक हो गए। ऐसा कभी हुआ भारतीय समाज कि एकांगी हो जाए और न भारत का प्लूरल समाज कभी होगा। लेखक ने हाशिमपुरा कांड को प्रभात कुमार कौशिक की मौत से जोड़ने और इनके संबंधी सेना के मेजर सतीश चंद्र कौशिक से जोड़ने की कोशिश की है। इसके तात्कालिक कारण जो भी रहे हों, लेकिन है यह इंतिहाई अफसोसनाक। मेजर सतीश की संदिग्ध भूमिका की बात सी आई डी ने प्रधानमंत्री को भेजी थी। ( पृष्ठ 103) वैसे भी उस समय सांप्रदायिक तनाव का वातावरण अति सघन था। फरवरी 1986 में राजीव गांधी ने अयोध्या में राम मंदिर का ताला खोलवाया था, जिससे फजा ख़राब हो गई थी। पुस्तक के लेखक ने इस बात को नहीं लिखा है।
इस मामले में पी चिदंबरम की जो उस समय गृह राज्यमंत्री थे, भूमिका भी संदिग्ध है। इस बात को कोर्ट में सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उठाया था।
लेखक के अनुसार, सी आई डी ने अपनी रिपोर्ट में सतीश पर संदेह तो जताया, लेकिन किसी भी सेना से संबद्ध अधिकारी या जवान से पूछताछ नहीं की। पुस्तक के लेखक का यह रहस्योद्घाटन महत्त्वपूर्ण है। यह बात भी लिखी गई है कि किसी सेनाधिकारी ने जांच में सहयोग नहीं किया।विरोधाभासी बात है यह !
दिल्ली में तीस हजारी की एक अदालत ने गत 21 मार्च 2015 को 1987 के हाशिमपुरा जनसंहार के बचे सभी 16 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। इस फ़ैसले को सैयद शहाबुद्दीन के प्रयासों से दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। उत्तर प्रदेश के मेरठ में स्थित हाशिमपुरा में यह गोलीकांड पुलिस की बर्बरता , नृशंसता और हैवानियत का जीता – जागता क्रूरतम मामला था , लेकिन राज्य और केंद्र सरकारों ने इस मुक़दमे में अपनी जिस कारकर्दगी का प्रदर्शन किया , वह निहायत ही अफ़सोसनाक , निंदनीय और अमानवीय है | अदालत ने कहा कि सबूतों, खास तौर पर आरोपियों की पहचान से जुड़े सबूतों का अभाव था। साथ ही अदालत ने पीड़ितों के पुनर्वास के लिए मामला दिल्ली राज्य विधि सेवा अधिकरण के हवाले कर दिया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश संजय जिंदल ने कहा कि सभी आरोपी बरी किए जाते हैं। बरी किए गए लोगों में सुरेश चंद शर्मा, निरंजन लाल, कमल सिंह, बुद्धि सिंह, बसंत बल्लभ, कुंवर पाल सिंह, बुद्धा सिंह, रामबीर सिंह, लीलाधर, हमबीर सिंह, मोकाम सिंह, शमीउल्लाह , श्रवण कुमार, जयपाल सिंह, महेश प्रसाद और राम ध्यान शामिल थे। महेश प्रसाद और कुंवर पाल सिंह के अलावा सभी आरोपी अदालत में मौजूद थे और जमानत पर रिहा थे। अदालत ने इससे पहले 22 जनवरी को अंतिम दलीलों को सुनने के बाद अपना सुरक्षित रख लिया था। विशेष लोक अभियोजक सतीश टम्टा ने कहा कि प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी कर्मी 22 मई को 1987 में आए थे और वहां एक मस्जिद के बाहर एकत्र 500 में से तकरीबन 50 मुसलमानों को उठाकर ले गए। ( पुस्तक के लेखक ने तलाशी अभियान के दौरान उन्हें हिरासत में लेने की बात कही है, जो ठीक नहीं मालूम होता। ) उस समय अभियोजन पक्ष ने यह भी कहा कि पीड़ितों को आरोपियों ने गोली मार दी और उनके शव एक नहर में फेंक दिए। जनसंहार में 42 लोगों को मृत घोषित किया गया। इस घटना में पांच लोग जिंदा बच गए, जिन्हें अभियोजन ने गवाह बनाया। ये पांच गवाह आरोपियों को पहचान नहीं पाए। इस मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, गाजियाबाद के समक्ष 1996 में आरोपपत्र दायर किया गया था। इसमें 19 लोगों को आरोपी के तौर पर नामजद किया गया था | सुनवाई के दौरान 19 में से तीन आरोपियों की मौत हो गई | 16 के खिलाफ 2006 में यहां की अदालत ने हत्या, हत्या का प्रयास, सबूतों के साथ छेड़छाड़ और साजिश के आरोप तय किए थे | सितंबर 2002 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मामला दिल्ली स्थानांतरित किया गया। मामले की जांच करने वाली उत्तर प्रदेश की सीबी-सीआइडी ने 161 लोगों को गवाह के तौर पर सूचीबद्ध किया था। मामले में आरोपपत्र 1996 में गाजियाबाद के चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में दाखिल की गई थी, लेकिन सितंबर, 2002 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मामले को दिल्ली हस्तांतरित किया गया।
साल 2006 में आरोपियों के खिलाफ हत्या, हत्या की कोशिश, सबूतों से छेड़छाड़ और साजिश रचने के आरोप तय किए गए थे। यह सरकारी आतंकवाद से सीधा जुड़ा हुआ मामला है , जिसमें सबने पी ए सी के जवानों को बचाया ही और इन्साफ की राह में बहुत – सी अडचनें पैदा कर दीं | कांग्रेस , सपा , बसपा – ये सभी एक ही रंग में रंगी नज़र आती हैं | हालत इतनी बदतर कर डाली गई कि मुस्लिम नवजवानों को भूनने वाले जवानों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई ! पीड़ितों ने इसके लिए बार – बार गुहार लगाई , किन्तु कोई नतीजा सामने नहीं आया | जो पहले से तय कर लिया गया था कि कोई कार्रवाई नहीं होगी , वही हुआ, लेकिन अंतिम परिणति सकारात्मक रही | हद तो यह हो गई कि इस मामले की सुनवाई ही लंबे समय तक ठप रही | जब पीड़ितों ने आर टी आई का सहारा लिया और 24 मई 2007 को लखनऊ पहुंचकर डी जी पी आफ़िस में 615 आर टी आई आवेदन भरे , तब जाकर उन्हें मामले की प्रगति का पता चला ! सितंबर 2007 में उन्हें जो सूचना दी गई , उसमें यह भी बताया गया कि किसी भी आरोपी जवान के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई है , यहाँ तक कि उनके वार्षिक विश्वसनीय रिपोर्ट [ ACR ] में भी कुछ दर्ज नहीं किया गया | उल्लेखनीय है कि इस मामले में 11 साल तक पी ए सी के क़ातिल जवान अदालत में पेश ही नहीं हुए , जो उनके राजनीतिक संरक्षण का खुला सबूत है | मई 2000 में 16 जवानों ने अदालत में सरेंडर किया | दरअसल यह मामला भी सीधे सांप्रदायिक सियासत से जुड़ा हुआ है | अप्रैल 1987 में केंद्र की राजीव गाँधी सरकार बाबरी मस्जिद का ताला खोलवाया था और वहां पूजा – पाठ शुरू कर दिया गया , जिसके चलते माहौल तनावपूर्ण हो गया था | यह तनाव अन्य स्थानों तक पहुंच चुका था | 19 मई 1987 को हापुड़ रोड , गोला कुआँ और पलोखड़ी में हिंसा की कुछ घटनाएं घटीं , जिनके कारण हालात और तनावपूर्ण हो गए थे |
 पी ए सी को वहां बुलाया गया | उसने आते ही मुसलमानों को पकड़ना और सताना शुरू कर दिया , मगर इतने से उसकी तबियत न भरी तो मुसलमानों के सामूहिक हत्या का जघन्य प्लान बना डाला गया | भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के आरोपों के मुताबिक़ , इस सामूहिक हत्या में कांग्रेसी नेता पी चिदंबरम की भूमिका थी , जो उस वक्त गृह मंत्रालय में अतिरिक्त सुरक्षा राज्य मंत्री थे | स्वामी ने जून 2012 में पत्रकारों से कहा था कि इस सिलसिले में उनके पास पर्याप्त सबूत हैं | उन्होंने कहा कि ‘ चिदंबरम ने मेरठ जाकर एक बैठक की थी , जिसमें उन्होंने अधिकारियों से कहा था कि 200 – 300 ऐसे नवजवानों को गोली से उड़ा दो , तो दंगे कभी नहीं होंगे | उस वक्त सांसद रहीं मुहसिना किदवाई उस बैठक की गवाह हैं , लेकिन उन्हें उस बैठक में शामिल होने से जबरन रोक लिया गया था | ‘ लेखक ने ये सब तथ्य नहीं लिखे हैं। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इस मामले में अदालत में जनहित याचिका दाखिल की थी।
 उल्लेखनीय है कि रमज़ान के आख़िरी अशरे में यह निर्मम सामूहिक हत्या की गई | जुमअतुल विदाअ , 22 मई 1987 को पी ए सी के प्लाटून कमांडर सुरेन्द्र पाल सिंह ने हाशिमपुरा स्थित मस्जिद से बड़ी तादाद में मुसलमानों को पकडवाया | फिर बच्चे – बच्चियों को अलग करवा दिया | बच गए पचास रोज़ेदार नवजवान , जिनमें ज़्यादातर दिहाड़ी के मज़दूर और बुनकर थे | इन सबको ट्रक में भेड़ – बकरियों की तरह भरकर गाज़ियाबाद के मुरादनगर गंग नहर के पास ले जाया गया और दो किस्तों में दो स्थानों पर एक लाइन में खड़ा करके गोलियों से भून डाला गया और लाशों को गंग नहर में फेंक दिया गया | गोली लगने के बाद पांच मुसलमानों की जान बच गई , जिनमें नसीम आरिफ़ , मुजीबुर्रहमान , ज़ुल्फ़िकार नासिर और मुहम्मद उस्मान शामिल थे | ” हाशिमपुरा 22 मई ” अपने कुछ नए दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, लेकिन स्तुत्य प्रयास है। लेखक ने पुस्तक में बताया है कि पुलिस हिंदुओं के लिए ” हम ” और मुसलमानों के लिए “वे ” शब्द प्रयुक्त करती है। यदि यह मानसिकता किसी भी सुरक्षा बल में मिले, तो यह बहुत दुखद है।
 ” हाशिमपुरा 21 मई ” की छपाई बहुत सुंदर है। 160 पृष्ठ की इस पुस्तक को राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। प्रूफ में दोष न के बराबर है, परन्तु कुछ बातें अखरती हैं। पुस्तक में पुनरावृत्ति का दोष है, जो इस प्रकार या अन्य प्रकार के ऐसे लेखन के उचित नहीं मानी जाती। फिर फिक्शन तो है नहीं, कि बातों को गोल – गोल घुमाया ही जाए। इसलिए सरसता कम है। प्रवाह थमा हुआ है, लेकिन अध्यायों के शीर्षक बेजोड़ हैं। यथा – ” दश्त को देखकर घर याद आया ” , ” मरें तो गैर की गलियों में ” आदि। ” चौथी दुनिया ” के संपादक संतोष भारतीय को लेखक ने सदा / बार – बार संतोष भारती लिखा है। क्या लेखक को इतने बड़े पत्रकार का सही नाम ही पता नहीं ?? ” ट्रक ” को बारंबार स्त्रीलिंग में लिखा गया है, जबकि इसे पुल्लिंग माना जाता है हिन्दी साहित्य में। लेखक साहित्यकार भी हैं, फिर ऐसा क्यों? जबकि मूल पुस्तक हिंदी में ही लिखी गई है। पृष्ठ 52 के ” उहापोह ” और पृष्ठ 94 के ” सउदी ” को प्रूफ की त्रुटि मान सकते हैं, मगर क्यों ? हिंदी में ” ” ऊहापोह ” लिखा जाता है और ” सऊदी “। यही मानक शब्द हैं।
– Dr. RP Srivastava
Chief Editor, Bharatiya Sanvad

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