बलरामपुर की है अपनी निराली पहचान,
कोई शख़्स नहीं इसकी अज़मत से
अनजान,
कितनी तारीफ़ करूं मैं इस महबूबतरीन की,
उर्फ़ – ए आम पर छाई है जिसकी अमिट दास्तान।
– अनथक
अपने आबाई शहर बलरामपुर को और क़रीब से जानने के लिए एमेजॉन से मंगाई पुस्तक ” मेरा बलरामपुर” हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं। इसे लब्ध प्रतिष्ठ रचनाकार चंद्रेश्वर ने लिखी है। वे लगभग ढाई दशक तक बलरामपुर में मुक़ीम रहे हैं। एम एल के कालेज के हिंदी विभाग से संबद्ध रहे और विभागाध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया।
इस दौरान उन्होंने हमारे शहर बलरामपुर को जितना देखा, समझा और जाना, सबको ईमानदारी के साथ क़लमबंद किया और हमारे शहर को विधिवत अपना भी बनाया ! यह काम कोई करना नहीं चाहता और सोचें तो शायद करना मुश्किल हो जाए। ऐसे में यह सद्प्रयास सभी के लिए मील का पत्थर है। जो काम हम यहां हम दशकों साल रहकर भी नहीं कर सके और नहीं कर पा रहे हैं, भाई चंद्रेश्वर ने कर दिखाया। इस बड़े कारनामे के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है।
वैसे शहरों पर लेखन अन्य साहित्य में भी हुआ है। जैसा जिसने देखा, लिख दिया। कभी यह किसी विशेष प्रयोजन से भी लिखा । ” शहर था शहर नहीं था” ( राजकमल चौधरी )  और रघुवीर सहाय की ” दिल्ली मेरा परदेस” ऐसी ही रचना है। और विशुद्ध राजनीतिक उद्देश्य के लिए शहर पर लिखी गई शीला दीक्षित की पुस्तक ” दिल्ली , मेरी दिल्ली” का क्या ?! शहरों पर अब तक विशुद्ध साहित्यिक पकड़ में अमेरिकी लेखक क्लिफ फोर्ड डी सिमोक ( Clifford D Simok ) आगे हैं। वे शहरी अभिव्यक्ति के माहिर माने जाते हैं। उनकी कई रचनाएं नगरीय जीवन से संबंधित हैं। शहरों की परंपरा, रीति – रिवाज और रहन – सहन में हो रहे बदलावों पर आधारित उनके लेखन ने एक बड़े पाठक वर्ग को प्रभावित किया है।
जहां तक “मेरा बलरामपुर का ताल्लुक़ है, तो सही अर्थों में लेखक ने माटी के कर्ज़ की अदायगी की है। पुस्तक के यशस्वी लेखक के शब्दों में, ” बलरामपुर मेरी कर्मस्थली रही है, अभी है। यहां के अन्न – जल एवं परिवेश ने मेरे जीवन को नए तरीक़े से रचा – गढ़ा है, परिवर्तित किया है, उसे नए कोण प्रदान किए हैं। यहां के समाज व संस्कृति ने मेरे व्यक्तित्व में एक गुणात्मक अंतर लाने की कोशिश की है। यहां की धरती और आकाश से बहुत कुछ प्राप्त किया है मैंने। यह पुस्तक एक तरह से यहां के कर्ज़ को कुछ हद तक उतारने की एक छोटी – सी पहल भी हो सकती है। यहां से जो पाया – सीखा, उसी को एक हद तक लौटाने की कोशिश में संभव हुई है यह पुस्तक।” ( “आरंभ”, पृष्ठ 9 )
इस पुस्तक का आरंभ यहीं से होता है। फिर ” पूर्व पीठिका ” से होते हुए छोटे – बड़े अध्यायों को पार करता हुआ अंतिम पृष्ठ 126 तक जाता है। इस प्रकार यह पुस्तक आत्मकथ्यात्मक अधिक है। यही गुण अन्य पुस्तकों से इसे काफ़ी अलग भी करता है।
“पूर्व पीठिका” में बलरामपुर की कुछ गौरवगाथा है। खद्दर की पुरानी चादर को बचाने की कोशिश है ! कुछ राजनेताओं की भी चर्चा है, जिन्होंने कभी बलरामपुर को अपनी राजनीति के केंद्र में लिया था। लिखा है, ” यहां पंडित नेहरू आए थे 1957, के चुनाव में, अटल जी के ख़िलाफ़  प्रचार में । फिर भी अटल जी जीत गए थे।”
 उस समय वे तीन स्थानों – लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव मैदान में उतरे थे। वास्तव में अटल जी बलरामपुर से तीन बार चुनाव  लड़े लोकसभा का। 1962 में सुभद्रा जोशी से हारे, तो 1967 में फिर जीते। उस समय उन्होंने गोंडा- बलरामपुर – गोरखपुर लूपलाइन को ब्रॉडगेज में बदलने का आदेश पारित कराया था, जिसे 20140 में केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद पूरा कराया गया। ‘सुशासन’ भी चली।
” मेरा बलरामपुर ” के इस अध्याय में ‘ शहीद वीर विनय कायस्था का शहर ‘ उपशीर्षक ( क्रॉसर ) है, जिसमें वीर विनय कायस्थ के विषय में एक – दो पंक्तियों में ही सही, कुछ भी नहीं लिखा गया है। इससे यह शीर्षक अर्थहीन और अप्रासंगिक हो गया है। इसमें प्रोफेसर नागेंद्र सिंह और आज़ाद सिंह की चर्चा है। बलरामपुर के विनय कायस्थ महान सैनिक थे, जिन्होंने अपने शहर का ही नहीं प्रदेश और देश का नाम रोशन किया। उन्होंने अपनी अल्पायु में ही जो ख्याति प्राप्त की, वह अविस्मरणीय है। दो अगस्त 1946 को कायस्थ परिवार में जन्मे विनय कायस्थ ने 1965 ई. के भारत – पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान में घुसकर फिल्लौरा नामक स्थान पर कब्ज़ा करके भारतीय तिरंगा फहरा दिया और दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए और अंतिम समय तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए… उन्हें शत शत नमन, वंदन !
“पूर्व पीठिका” में बलरामपुर के कुछ नए – पुराने रचनाकारों के नाम और उनके बारे में कुछ वक्तव्य हैं। आशा है, जो नाम छूट गए हैं, वे लेखक की इस सिलसिले की दूसरी कड़ी में आएंगे। एक – दो तो पुस्तक में अन्यत्र आ ही चुके हैं, जैसे लेखक लीलाधर पाण्डेय, जो ” कहानीकार शत्रुघ्न लाल की ” उम्मीद ” के बयान में अनायास आ चुके हैं। पाण्डेय जी साहित्य के सिद्ध पुरुष थे। उनकी दो रचनाएं मैंने 1981 में अपनी पत्रिका “परिवेश” मासिक में प्रकाशित की थी। याद आता है उनमें एक ” पुरुषोत्तम ” (महाकाव्य ) की समीक्षा थी, जिसका शीर्षक मैंने दिया था – ” कृष्ण काव्य की नई दिशा “। उनसे मेरे अच्छे संबंध थे, हालांकि मैं उनसे उम्र में काफ़ी छोटा था। ऐसे ही बलरामपुर को अपनी असली कर्मभूमि बनानेवाले डाक्टर कलीम क़ैसर हैं, जो उर्दू अदब के सुतूनों में हैं। वे रहनेवाले तो हैं गोरखपुर के, लेकिन बलरामपुर के ही होकर रह गए। वे इस समय गोरखपुर रह रहे हैं। बड़े फ़ख्र से अपने को बलरामपुरिया कहते हैं। जब मैं बलरामपुर में था, लगभग रोज़ मिलते थे। रास्ते में बलुहा मुहल्ले में रहते थे। पता नहीं क्यों उनका मुझे देखकर मुस्कुराना और यह कहना, ” सब ख़ैरियत ” मुझे बहुत आत्मिक शांति देता था। मेहदी हसन उर्दू के बेहतरीन शायर थे। वे वकील थे और गर्ल्स इंटर कालेज के प्रबंधक हुआ करते थे। उनकी भी कुछ रचनाएं मैंने “एकता संदेश” ( पाक्षिक ) में छापी थीं।
और भी रचनाकारों के नाम पुस्तक में नहीं आ सके हैं। बहुत संभव है, लेखक के सामने वे नाम न आए हों। बाल कवि/ लेखक बम बहादुर सिंह “सरस” भी “मेरा बलरामपुर” में जगह नहीं पा सके हैं और चियां बलरामपुरी  ( ओम प्रकाश सक्सेना ) भी। इनकी मैंने कई रचनाएं प्रकाशित की थीं। पहले के और वर्तमान रचनाकारों में और भी नाम छूटे हैं, जिनमें डॉक्टर जे एन सिंह, ईश्वर शरण श्रीवास्तव, राधाकृष्ण शुक्ल, कैलाश नाथ रेंजर, हरिहर प्रसाद वर्मा, जगन्नाथ प्रसाद आर्य, उदयभानु पाण्डेय, हाशिम अली, मुहम्मद हारून ख़ान, निसार अहमद, हशमत अली मुज़तर, जटा शंकर वर्मा, शांति प्रसाद मिश्र ‘ मधुकर ‘, नीरज बख़्शी, सुरेंद्र बहादुर सिंह, विनोद कलहंस, सुशीला गोस्वामी, हिना अंजुम, डॉक्टर प्रकाश चंद्र गिरि, डॉक्टर अनिल गौड़ , प्रदीप मिश्र, अख़लाक़ अहमद ज़ई,  शकील रिज़वी, डॉक्टर जमाल, कुमार अनुपम, कुमार पीयूष, अशोक मिश्र और कामिल बलरामपुरी आदि के नाम सरेफेहरिस्त हैं। ऐसा नहीं है कि पुस्तक में डॉक्टर गिरि और डाक्टर गौड़ के नाम सिरे से नदारद ही हों, “अरुणाभा” के एक अंक में छपे लेखकों की सूची में इनके भी नाम हैं ( पृष्ठ 25 )। लेखक ने कहा भी है, ” मैंने भी इस शहर और यहां के लोगों को अपनी तरह से समझा है।” !!!??? ( पृष्ठ 17 )
पुस्तक का दूसरा अध्याय ” स्मृति शेष महाराजा धर्मेंद्र प्रसाद सिंह ” है। इसमें संक्षेप में उनकी कुछ बातों और गुणों का बयान है। लेखक की उनसे की गई एक भेंटवार्ता का भी ज़िक्र है, जिसमें यह भी है, ” महाराजा धर्मेंद्र प्रसाद सिंह ने ही बताया था कि महाराजा सर पाटेश्वरी प्रसाद सिंह बाल्यकाल से ही महात्मा गांधी से प्रभावित थे। वे स्वाधीनता आंदोलन से गहरे जुड़े हुए थे। महात्मा गांधी सन 1914 में दक्षिण अफ़्रीक़ा से भारत आए थे। सन 1915 से वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे। वे सन 1924 – 25 में जब गोंडा आए, तो बलरामपुर भी आए थे। तब महाराजा सर पाटेश्वरी प्रसाद सिंह नाबालिग़ थे। वे गांधी जी की सभा में शामिल हुए थे। दुबारा सन 1935-36 में गांधी जी बलरामपुर आए थे, तो महाराजा सर पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने कुआना जंगल तक जाकर उनको ‘ रिसीव ‘ किया था।” ( पृष्ठ 21 )
इस विवरण पर कुछ कहा जा सकता है। गांधी जी के दूसरी बार बलरामपुर आने की बात का प्रमाण कहीं नहीं मिलता। यह बात और है कि गांधी जी के बलरामपुर आगमन के बारे में कोई एक बात विवरणों में उपलब्ध नहीं है। patrika. com पर 2 अक्तूबर 2018 को पोस्ट एक आर्टिकल में यह बात भी आई है, ” गांधी जी ने देश से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए असहयोग आंदोलन चलाया। बात 1920 से 1929 के दौरान की है। महात्मा गांधी का ज़िले में आना हुआ। स्वागत में तत्कालीन महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने गोंडा मार्ग पर कुआनो के पास स्वागत किया था।” इसी में है, ” महाराज व महारानी ने महात्मा गांधी के स्वागत की कमान स्वयं संभाली थी।” इसी पर “राष्टीय स्वतंत्रता संघर्ष” पुस्तक के हवाले से कहा गया है कि ” महाराज ने चार वा महारानी ने महिलाओं की तरफ़ से दो हज़ार रुपए की थैली भेंट की थी।” यह पुस्तक मुझे कभी अवलोकनार्थ नहीं मिली, न ही इसकी उपलब्धता के बारे में कुछ जान सका हूं, जबकि इसे पढ़ने की उत्कंठा पाले हुए हूं। इसका संदर्भ भी मुझे नहीं प्राप्त हो सका है।
महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह का जन्म एक जनवरी 1914 को हुआ था और निधन 30 जून 1964 को। उनका बलरामपुर के महाराजा के रूप में कार्यकाल 1921 से 1964 बताया जाता है।
livehindustan.com की दो अक्तूबर 2021 की पोस्ट पर है, ” असहयोग आंदोलन के दौरान वह ( गांधी जी ) बलरामपुर भी आए। बताया जाता है कि 1924 में वह यहां पधारे थे … गोंडा रोड पर एक कुआनो पुल के पास तत्कालीन महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने गांधी जी का स्वागत किया। आंदोलन कोष में स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली भेंट की। माया होटल में ही गांधी जी ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को संबोधित किया। इसके बाद महाराजा बलरामपुर व महिलाओं की सभा में गांधी जी को दो हज़ार रुपए की थैली भेंट की गई।” ये सब बातें भी ” राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष ” पुस्तक के हवाले से लिखने का दावा किया गया। इस पुस्तक का डिटेल उपलब्ध नहीं, जैसे इसके लेखक कौन हैं और वह कहां से छपी है आदि !
अगर यह बात सच मानी जाए तो क्या हम कह सकते हैं कि दस वर्ष की अवस्था में ही महाराजा यह सब कर सकते हैं और क्या उस समय उनकी शादी भी हो गई थी ? कार्यकाल के लिहाज़ से वे महाराजा थे। ये सब बातें तहकीक तलब हैं। इस सिलसिले में प्रमाणिक बात लानी चाहिए। एक पुस्तक आनी चाहिए जिसमें दलील के साथ विवरण हों।
बलरामपुर रियासत का गौरवमय और तत्वदर्शितापूर्ण अतीत है। रामगढ़ गौरी के महाराजा माधव शाह ने अपने स्वर्गीय पुत्र बलराम शाह की स्मृति को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए उनके नाम पर बलरामपुर शहर की स्थापना की थी। उन्होंने 1439 से 1480 तक रामगढ़ गौरी पर शासन किया। तदंतर नया शहर बलरामपुर राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। सन 1480 में महाराजा माधव की मृत्यु के बाद उनके पुत्र कल्याण सिंह महाराजा की गद्दी पर बैठे और सन 1500 तक महाराजा बने रहे। यही सही मायने में बलरामपुर के पहले महाराजा थे।
बलरामपुर के सहिजना ग्राम सभा के वयोवृद्ध पूर्व प्रधान गोकरन लाल श्रीवास्तव ने बताया कि ” गांधी जी एक बार ही बलरामपुर आए थे 1924 में गोंडा के रास्ते से। उनके साथ जवाहरलाल नेहरू भी थे। बलरामपुर में महाराजा के यहां से होकर तुलसीपुर गए, जहां रुके नहीं। चले गए जरवा के पास थारू जनजाति बाहुल्य नवलगढ़ ग्राम पंचायत के टिकुइया ग्राम में एक यादव परिवार के यहां, जहां रात गुज़ारी।” श्री श्रीवास्तव ने बताया कि ” लंबे समय तक यादव परिवार का घर गांधी जी की यादगार बना रहा। वहां वह सब कुछ रखा हुआ था, जिस बेड / कुर्सी पर बैठे, जिन सामग्रियों को उन्होंने इस्तेमाल किया, सब रखे हुए थे। लेकिन आज की क्या स्थिति है, यकीनी तौर पर कुछ कह नहीं सकता। यादव परिवार के लोग आज भी गांव में रहते हैं।”
” कालेज में जूनियर होने का सुख ” अच्छा लगा। डॉक्टर एस एन त्रिपाठी से संपर्क फलीभूत हुआ और लेखक को लखनऊ में भी व्यवस्थित किया। ” अरुणाभा ” के संपादन में भोजपुरी गीत को लेकर विवाद बलरामपुर के लिए अशोभनीय है। ग़ैर पारंपरिक है। भाषा को लेकर यहां कभी कोई किंचित विवाद नहीं हुआ था। यह शहर रहा ही है विभिन्न सांस्कृतिक परिधानों में लिपटा हुआ ! इसी अध्याय में लेखक ने कविता के हवाले से कटु सत्य बात लिखी है, वह यह है कि ” इस इलाक़े में कविता में छंद और गेयता के प्रति आग्रही कावियों की तादाद ज़्यादा है। यहां कवियों की तेज आग्रही मनोवृत्ति नुकसानदेह भी साबित हुई है। इसने नए कवियों के लिए रास्ते नहीं खुलने दिए हैं।”( पृष्ठ 26 )
वर्तमान में लेखक बलरामपुर शहर में पर्याप्त साहित्यिक  माहौल न पाने से निराश है और इसे ” अदब के लिहाज़ से एक मरता हुआ शहर” करार देता है। इससे कोई पूरी तरह सहमत नहीं हो सकता, लेकिन प्रत्येक रचनाकार को अपना मंतव्य प्रस्तुत करने का पूरा अधिकार होता है और होना भी चाहिए।
सब्ज़ीमंडी, गुड़मंडी से घासमंडी तक की चर्चा में साहित्य के सिद्ध पुरुष हरिशंकर लाल श्रीवास्तव ” ख़िज्र ” की चर्चा असंगत अवश्य लगती है। ख़िज्र जी अंग्रेज़ी के विद्वान थे ही, उर्दू/ हिन्दी पर भी उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी। बड़े शायर थे और कवि भी। कहते हैं , उनके समय में बलरामपुर में उनके जैसा अंग्रेज़ी का अधिकारी विद्वान मौजूद न था। ऐसे ही अंग्रेज़ी बोलने में उनका कोई सानी न था। सुना था, अंग्रेज़ी की वाद – विवाद प्रतियोगिता जो उच्च आयु वर्ग के लिए भी थी, उसमें उनसे एम एल के कालेज के अंग्रेज़ी प्रवक्ता हार गए थे, जिसकी उस समय काफ़ी चर्चा थी।
ख़िज्र जी से मेरी तकरीबन रोज़ ही मुलाक़ात हो जाया करती थी। उन्हें मैंने कई रूपों में देखा है, किसान के रूप में भी। मेरा मकान नहर बालागंज में था और वे पास के महादेव गांव में अधिवासित थे, जहां मेरी बहन भी रहती थीं। इस वजह से मेरा भी गांव में आना – जाना लगा रहता था। साथ ही खिज्र जी को नहर बालागंज से होकर ही जाना पड़ता था ख़ासकर पढ़ाने के वास्ते। एक बार मैंने Readers Digest के लिए अंग्रेज़ी में एक आर्टिकल लिखा, जिसका शीर्षक था ” 21st century India “। मैं इसे जंचाने के लिए उनके पास साइकिल चलाकर महादेव ( कभी इसे महादेवा नहीं कहा गया ) पहुंचा। उस समय मैं इंटरमीडियट कर रहा था और उनके पास इस स्थिति में उपस्थित होने का पहला अवसर भी। ख़िज्र जी ने न सिर्फ़ मेरे आर्टिकल की तारीफ़ की, बल्कि जहां – तहां  करेक्शन करके कुछ phrases का इस्तेमाल करके उसे स्तरीय बना दिया। मैं आज भी आभारनत हूं उनके प्रति। ख़िज्र जी की ” मेरा बलरामपुर ” के लेखक द्वारा की गई प्रशंसा नितांत उचित है। वे इसके अधिक पात्र हैं।
इस पुस्तक में जनपद के वयोवृद्ध रचनाकार अरुण कुमार पांडेय पर अच्छी गुफ़्तगू है, वहीं सुरेंद्र विमल के ” गज़लनुमा ” की ख़ुशनुमा चर्चा है। लेखक ने बलरामपुर के कवियों और शायरों का जो ग़ैर सियासी मिज़ाज बताया है, उसमें दम है। लेकिन पहले और अब की कविता तथा शायरी पर अवश्य ही समय की छाप है। बेकल उत्साही स्वयं कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने , किन्तु अपनी शायरी को सियासी रंग कभी नहीं दिया। अपवाद लगभग हर जगह है।
पुस्तक के ख़ालिस आत्मकथ्यात्मक अध्याय बेहद अच्छे बन पड़े हैं। रोचक हैं और पाठकों को लेखक के और क़रीब लाते हैं। लेखक ने ठीक ही माना है कि ” बलरामपुर एक उत्सवप्रिय नगर है ” … , ” यह शहर सब कुछ के बाद भी मेल – मिलाप और समरसता की ज़मीन पर अवस्थित है।” ( पृष्ठ 37, 40 )
“क़दम – क़दम पर पांव छूनेवाले विद्यार्थी” शीर्षक में शीर्षक विषयक कोई सामग्री का न मिलना प्रायोजित लगा। यह भारतीय संस्कृति है, जो प्रायः सभी कालेजों , महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों में  दिख जाया करती है। कतिपय जातीय/ धार्मिक शिक्षालय इसके अपवाद हो सकते हैं। पत्रकारिता के अध्ययन के दौरान  मैंने महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में भी चरण स्पर्श की परंपरा देखी। इसे संस्कार और परंपरा की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उक्त शीर्षक की भांति ” हमारी पीढ़ी में वे बेबाकपन की कमी ” है, जिसमें सामाजिक जीवन के जोड़तोड़ पर प्रकाश है।
” बची – खुची सामंती भव्यताओं का शहर ” बहुत सटीक व युक्तिसंगत विवेचन के साथ प्रस्तुत किया गया है। बलरामपुर राज परिवार के कल्याणकारी कार्यों का उल्लेख है। साथ ही यहां के विकास की धीमी रफ़्तार को रेखांकित किया गया है। लेखक के अनुसार, ” जनहित के मुद्दे पर कभी आंदोलन या संघर्ष करते लोग सड़कों पर कम ही उतरते हैं। मुझे जान पड़ता है कि यहां के लोग यथास्थितिवादी हैं। अब कमोवेश यह स्थिति पूरे देश की बनती जा रही है। ” ( पृष्ठ 45,46 )
यही सही चित्रण है आज के बलरामपुर का। लेकिन पहले ऐसा क़तई नहीं था बलरामपुर। इमरजेंसी के बाद जैसा कि मुझे याद है, बलरामपुर विभिन्न मोर्चों पर अत्यधिक क्रियाशील शहर था। वंशराज सिंह का समाजवादी/ जनवादी तेवर देखते ही बनता था। यक़ीनन वे बची – खुची अर्धजाग्रत चेतना को पूर्णता प्रदान करते थे। वे डिग्री कालेज के पास ही इस काम की सिद्धि के लिए लाइब्रेरी का भी संचालन करते थे, जहां मुझ समेत बहुत – लोगों का अक्सर जमावड़ा होता था। लाल बहादुर सिंह कलहंस, जो नामी – गिरामी वकील थे, जनता की लड़ाई लड़ते, लड़वाते थे। इनमें उनके छोटे भाई बहुत सक्रिय रहते। मैं उन्हें कामरेड कहता। मैत्रीवत आत्मीय संबंध थे मेरे उनसे और उनके परिवार से। यह परिवार गंगा जमुनी तहज़ीब में यक़ीन रखता था। कलहंस जी की बेटी उर्दू विषय में भी पढ़ाई कर रही थी। लाल बहादुर सिंह कलहंस मेरी ” परिवेश “( मासिक पत्रिका ) के विधि सलाहकार भी थे। उनकी ट्रेड यूनियन के लीडर और वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश मिश्र से गहरी दोस्ती थी। मिश्र जी जब लखनऊ से जनचेतना के कामों के सिलसिले में बलरामपुर आते तो कलहंस के घर ठहरते। जनसंघर्ष का कार्यक्रम तय करते और क्रियान्वयन की रूपरेखा बनाते। अदबी महाज़ पर ” साहित्यकार कल्याण संघ ” सक्रिय था। यह बलरामपुर के अग्रणी शायर अली सरदार जाफ़री के विशेष जन्मदिवस पर बलरामपुर में मुशायरा आदि कार्यक्रमों के सिलसिले में मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी के बलरामपुर आगमन पर बना था। साम्प्रदायिक सद्भाव का उद्देश्य लेकर इस संगठन के बैनर तले ” एकता संदेश ” ( हिन्दी पाक्षिक ) का प्रकाशन शुरू हुआ, जो साल भर से कुछ अधिक चला। यह तय कैफ़ी आज़मी साहब के साथ हुई बैठक में ही हो गया था और उसी बैठक में इस पत्र का मुझे संपादक बनाने का भी निश्चय हुआ। मैं छोटा ही था। मुझे देखकर कैफ़ी साहब ने कहा कि ” इतने कमज़ोर कंधे पर इतना बड़ा बोझ ! ” इस पर  शायर वसीम रिज़वी ने बताया कि ये पहले से ही ” परिवेश ” हिन्दी मासिक का संपादन करते हैं। इस पर कैफ़ी साहब ने कहा, ” अरे वाह “। इस पत्र के प्रकाशक थे खालिद रशीद खां वारसी। यह अस्पताल रोड, बलरामपुर से निकलता था। इस पर संपादकीय पता मेरा नहर बालागंज का होता था। इन सब कोशिशों से बनी ज़मीन पर सी पी आई के बड़े नेता अतुल कुमार अनजान 1989 में बलरामपुर से लोकसभा का चुनाव लड़े थे। जब मज़दूरों के शोषण का विरोध करने पर समंतवादियों ने कामरेड की काफ़ी पिटाई कर दी और वंशराज सिंह की स्वाभाविक मृत्यु हो गई, तभी से जनसंघर्ष टूटा। वंशराज सिंह ने भी लोकसभा चुनावों में क़िस्मत आज़माई की थी। बलरामपुर से ‘ वर्तमान समय ‘ [ हिन्दी साप्ताहिक ] का लगभग एक दशक तक प्रकाशन हुआ, जिसके संपादक थे अजय कुमार पाण्डेय |
” मेरा बलरामपुर ” में लेखक के समकालीन एम एल के में जितने भी अध्यापन कार्य से जुड़े महानुभाव होंगे, लगभग सभी आ गए होंगे। लेखक के जीवन की बहुतेरी बातें आ गई होंगी। ” अवध की संस्कृति का पूरब ” में ऐसे कुछ महानुभावों के बारे में है, जबकि ” दुनिया रोज़ बनती है ” में चिंतक, विचारक कवि श्यामजी मिश्र और गीतकार/ गज़लकार संजय सिंह का शुभ स्मरण है। ” उम्मीद ” पर एक अध्याय है।इसके संपादक थे शत्रुघ्न लाल। यह एक श्लाघनीय प्रयास था। शायर अंजुम इरफ़ानी को वाक़ई ईश्वर का इरफ़ान हासिल था। जो ज्ञान और विवेक से लबरेज़ होगा। निराशा उसके निकट भी नहीं फटकेगी।
समाजसेवी और साहित्य प्रेमी आज़ाद सिंह विशेषकर किसान हित के लिए अग्रसर नेता थे।अखिल भारतीय किसान कांग्रेस आई सेल उत्तर प्रदेश के लंबे समय तक पदाधिकारी थे। इसके वे प्रायः संयुक्त मंत्री चुने जाते थे। “पैगाम” भी चलाते और सामाजिक कार्यों में शरीक होते। इन पर अध्याय बनाना नितांत उचित रहा। वे शेरोशायरी के शौक़ीन तो थे, लेकिन उनका रोमानी मिज़ाज कभी नहीं देखा। मेरा उनके यहां बराबर आना – जाना लगा रहता था ” एकता संदेश ” के सिलसिले में। वे भी इस पत्र की सरपरस्ती करते थे। एक बार उन्होंने मुझे बताया कि ” किसानों के हितार्थ उनका कार्य कोई औपचारिक नहीं है। इस काम से मेरा दिली लगाव है, क्योंकि मैं मानता हूं कि किसान देश के सर्वांगीण विकास की बुनियाद हैं।”
समीक्ष्य पुस्तक में एम एल के पर अधिकतर अध्याय हैं। यह भी बताया गया है कि गब्बू भैया को राजनीति विरासत में मिली है। ये मेरे सहपाठी रहे हैं , लेकिन मुझे इस बात का अभिज्ञान नहीं था। इस बात से भी अपरिचित था कि बेकल उत्साही को अदम गोंडवी नहीं भाते थे। दोनों शायरों का अपना – अपना स्थान है। जनता से जुड़कर लिखनेवाला गिरोहबाज़ ही हो, अनिवार्य नहीं ! इसी प्रकार यहां के कवियों/ शायरों पर आधुनिक दृष्टि की कमी का आरोप लगाना भी अनुचित है। टन्नी वाले गुरु जी की चर्चा अपूर्ण लगती है। उनके बारे में लिखा गया है कि ” उनकी ज़िद थी कि विभाग में कोई साहित्यिक गोष्ठी नहीं होगी।” ( पृष्ठ 98 ) जहां तक मुझे याद है, हिन्दी विभाग में जब वे उसके अध्यक्ष थे, साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते थे। कोई और बात होगी, इस प्रकार के उनके निर्णय के। टन्नी वाले गुरु जी के बेटे नीरज मेरे सहपाठी थे | इसलिए मैं उनके यहाँ जाया करता था |
जगदेव सिंह बनना बहुत मुश्किल है किसी के लिए। इतना सादा इन्सान मैंने नहीं देखा अब तक। शीर्ष विद्वान होकर अहं भाव से कोसों दूर अपने को सदा टिकाए रखना बड़ा ही कठिन कर्म है। थोड़े में इतराने वालों को  बहुतायत देखा है। जगदेव सिंह से मेरे बहुत अच्छे संबंध थे। एक तो पत्रकार होने के नाते वे अक्सर मिल जाते। दूसरे उनका स्वभाव ही अति मेलजोल वाला था। वे ” स्वतंत्र भारत ” के गोंडा स्थित संवाददाता थे। गोंडा के पास भभुआ से बस का सफ़र करके बलरामपुर पढ़ाने आते थे। मैंने उनको राष्ट्रीय पत्र लेखक मंच के कार्यक्रम में भी बुलाया था। जब मैं कार्ड लेकर उनके विभाग में उनसे मिला और हिन्दी के उन्नयन  विषय पर संगोष्ठी में शामिल होने का अनुरोध किया, तो उन्होंने तत्काल स्वीकार कर लिया और आए भी। ” उन्होंने ” अरुणाभा ” को स्तरीयता प्रदान की। हिन्दी भाग के वही संपादक होते और अंग्रेज़ी भाग के जे एन लाल। एक बार उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की एक अप्रकाशित रचना प्रकाशित की थी, जिसकी बड़ी चर्चा हुई। यह रचना मुझे अखिलेश मिश्र ( लखनऊ के प्रख्यात पत्रकार ) ने मुझे दी थी। उनका दावा था कि अप्रकाशित है। उस समय हम लोग जीप से लखनऊ से बलरामपुर आए थे। जीप अखिलेश जी के प्रेस की थी। उन्होंने जीप में ही मुझे वह रचना दी थी।
समीक्ष्य पुस्तक में बलरामपुर के पत्रकारों का बहुत कम ज़िक्र है। श्याम नारायण श्रीवास्तव और विश्व मोहन का उल्लेख नाकाफ़ी है। जब मैं यहां पत्रकारिता करता था, तब विश्व मोहन केवल लाइब्रेरियन थे। जॉनी वाकर नाम से मशहूर श्याम नारायण श्रीवास्तव सर एम पी पी इंटर कालेज में नागरिक शास्त्र पढ़ाते और पत्रकारिता करते। The Times of India और “नेशनल हेराल्ड ” में बलरामपुर के समाचार भेजते, जो छपते रहते थे। लेकिन ये मान्यता प्राप्त पत्रकार नहीं बन पाए। एक बार एम एल के के ग्राउंड में हॉकी टूर्नामेंट में प्रेस गैलरी में हम सब बैठे हुए थे। किसी राज्य मंत्री को वहां पधारना था। उस समय मैंने ” जॉनी वाकर ” सर से पूछा कि राज्य मंत्री क्या होता है ? उन्होंने ठीक से बताया, तो मैंने कहा कि मैं इस प्रकार नहीं जानता था। उस समय बलरामपुर में एकमात्र मान्यता प्राप्त पत्रकार थे वी वी के सिन्हा, जो एडवोकेट भी थे। वे दो समाचारपत्रों ” स्वतंत्र भारत” और The Pioneer के बलरामपुर स्थित संवाददाता थे। गर्ल्स कालेज के समीप रहते थे। सिन्हा जी के यहां मेरा लगभग रोज़  जाना होता था। वे दशकों से पत्रकारिता कर रहे थे। मान्यता प्राप्त एक और पत्रकार बहुत बाद में बने थे कामरेड। मूल नाम कुछ और था, जो मुझे आज तक पता नहीं। ग़ैर यक़ीनी तौर पर कह सकता हूं कि उनका नाम महफ़ूज़ुर रहमान था। उन्हें बड़े संघर्ष के बाद मान्यता मिली थी। वे उर्दू दैनिक ” क़ौमी आवाज ” से संबद्ध थे। कहते हैं, ये सी पी आई के मेंबर थे। इनके संघर्ष की कई दास्तानें मुझे याद हैं। उस समय मैं ” नवभारत टाइम्स ” और ” नवजीवन ” का बलरामपुर स्थित संवाददाता था। ” जनमोर्चा ” के संवाददाता थे मेरे बचपन के मित्र भाई रतनलाल गुप्ता, जो आज बलरामपुर के नामी वकील हैं। ” दैनिक जागरण ” में न्यूज़ भेजते थे श्रीराम यादव। राधिका बाबू नाम से विख्यात राधिका प्रसाद श्रीवास्तव NIP में न्यूज़ भेजते थे। ये एम पी पी में कला के अध्यापक थे, सीनियर सेकेंडरी को पढ़ाते थे। ज़ख़ामत अली उर्फ़ लड्डू भाई उस समय एक उर्दू साप्ताहिक में ख़बरें भेजते थे। बहुत बाद में जब एडवोकेट बने, तो ” राष्ट्रीय सहारा ” ( उर्दू ) के नुमाइंदा बने जीवन पर्यंत। हम सभी लोगों के बीच मैत्रीभाव यहां तक कि एकजुटता ग़ज़ब की थी। वर्तमान में देखता हूं , आमजन में दुर्भाव अधिक है। ऐसा पहले नहीं था।
पुस्तक कई दृष्टियों से अहम है। इसमें संस्कृति, साहित्य के साथ ही खेल और जनजीवन से जुड़ी सामाजिकता की पर्याप्त बातें हैं। गागर में सागर भरने की कामयाब कोशिश की गई है। पुस्तक के अध्यायों की क्रमबद्धता की ओर और ध्यान दिया जाना चाहिए और संपादन की ओर भी। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षकों, डॉक्टरों, वकीलों आदि पर भी अध्याय रूप में कुछ सामग्री देनी चाहिए। पुस्तक का जनवादी दृष्टिकोण होना इसे एकांगी नहीं बनाता, सबको साथ लेकर चलने का उद्घोष करता है।
पुस्तक के आवरण को अच्छे लेआउट के साथ और बेहतर बनाया जा सकता था। पुस्तक में कहीं – कहीं प्रूफ शोधन का दोष है। ख़ासकर उर्दू के कई शब्दों में नुक़्ता लगाने या न लगाने में गड़बड़ी हुई है। बाइंडिंग, काग़ज़ और छपाई सुंदर है।अंत में एक बार फिर मैं यही कहना चाहूंगा कि लेखक का प्रयास अति सराहनीय, वंदनीय और उल्लेखनीय है। मनुष्य इतिहास में पैदा होता है , परंतु वह इतिहास बनाता है।
 लेखक को शुभकामनाएं !
– Dr RP Srivastava
Editor-in-Chief, www.bharatiyasanvad.com

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