क्या आज की मीडिया ग़ैर ज़िम्मेदार हो गई है या ग़ैर ज़िम्मेदार होकर ग़ुलाम बन चुकी है ? दोनों बातें सच हैं ! देश के लोकतंत्र के लिए घातक हैं !! और इसका वर्तमान रूप में बना रहना बड़ी सांसत !!! प्रेस परिषद के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस चन्द्रमौलि कुमार प्रसाद का एक वक्तव्य याद आता है, वह यह है कि ” लोकतंत्र में नियंत्रित मीडिया की अपेक्षा ग़ैर ज़िम्मेदर मीडिया होना ज़्यादा बेहतर है।” ….  ” अगर मीडया ग़ैर ज़िम्मेदाराना काम करता है तो उसकी जांच – परख हो, लेकिन यदि इसे नियंत्रित किया जाएगा, तो लोकतंत्र का अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। मीडिया के लिए आत्मनियमन सर्वश्रेष्ठ बात है , लेकिन मीडिया का नियंत्रण नहीं।” इस विचार के विपरीत प्रेस परिषद के ही पूर्व अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने कभी चेतावनी दी थी कि ” मीडिया पर कुछ नियंत्रण भी लगाए जा सकते हैं, क्योंकि आत्मनियंत्रण सही मामले में नियंत्रण नहीं हैं। आपातकाल के दौरान लगाई गई सेंसरशिप को छोड़कर आज़ादी के बाद से इस मामले में सरकार ने कभी कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया, जिसके कारण मीडिया स्वच्छंद हो गई और यह स्वच्छन्दता समाज में अफ़रातफ़री का कारण भी बनी और बन रही है |” इस मामले में वर्तमान सरकार समेत  केंद्र की सरकारें पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू का अनुसरण करती रहीं। पं. नेहरू ने 3 दिसंबर, 1950 ई. को अखिल भारतीय समाचार – पत्र संपादक सम्मेलन को आश्वस्त किया था कि मैं प्रेस को पूरी स्वतंत्रता दूंगा | कुछ हुआ भी ऐसा, लेकिन यह स्वतंत्रता कभी स्थाई नहीं रही | कांग्रेस ने आपातकाल में सारी रही – सही स्वतंत्रता नष्ट कर दी |

जस्टिस काटजू नियंत्रण के हिमायती तो थे, लेकिन सच यह है कि वे स्तरीय मीडिया के पक्षधर थे, जिसकी ज़रूरत पहले के मुक़ाबले आज कहीं ज़्यादा है | राष्ट्रीय मीडिया में आज स्तरहीनता ही स्तरहीनता दिखाई देती है, लेकिन अपवाद अपनी जगह है | यह भी हक़ीक़त है कि यह स्तरहीनता कृत्रिम अधिक लगती है, क्योंकि इसे ख़ासकर धनबल के इस्तेमाल से जान – बूझकर पैदा की गई है, जिसमें सबके हित सुरक्षित हैं ! आज पत्रकारिता में निपुण लोग भी हैं और अधकचरे लोग भी | आज  परिस्थितिवश हालत यह बन गई है कि दोनों समाज को ले जाकर अंधी सुरंग में फंसा रहे हैं ! स्वच्छन्दता – स्वेच्छाचारिता समाज में कितनी बड़ी अव्यवस्था पैदा कर रही है ! ग़ैर ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता के परिणाम सदैव बुरे होते हैं | देखा जा रहा है कि आज देश इन कुपरिणामों को भुगतने के लिए अभिशप्त है | हालत इतनी ख़राब है कि धन के सहारे मीडिया के एक वर्ग में ख़रीद – फ़रोख़्त का दौर जारी है | कभी माना जाता था कि भारतीय मीडिया और प्रेस मिशनरी भावना से काम करते हैं | आज वह स्थिति नहीं रही | लोकतांत्रिक व्यवस्था अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है। लेकिन यह सुनिश्चय क्या जनमत को अवांछित रूप से प्रभावित नहीं करता ? लोक व्यवस्था बनाये रखने की चिन्ता तो होनी ही चाहिए, लेकिन लगता है कि भारतीय मीडिया को इसकी अधिक परवाह नहीं है | व्यवस्था बनाये रखना राज्य का भी दायित्व है और नागरिक का भी |

सहमति – असहमति की अभिव्यक्ति लोकतंत्र का अभिन्न अंग है, लेकिन असहमति या विरोध मर्यादा के अंतर्गत ही सह्य है , अन्यथा अराजकता की स्थिति में सज़ा योग्य है , जिसका ज़िम्मेदार सरकारें सदा पालन करती रहती हैं | मगर मगर आज मीडिया का ग़ैर ज़िम्मेदाराना रुख़, और व्यवहार समाज को तोडऩे और बिगाडऩे का ही काम करता है, बनाने का नहीं। प्रख्यात पत्रकार शीतला सिंह के अनुसार , ” यह कहा जा सकता है कि मीडिया आख़िर ग़ैर ज़िम्मेदार होकर भी क्या नुक़सान कर सकता है ? इस रूप में झूठी, काल्पनिक ख़बरें प्रकाशित करके वह लोकमानस को उकसा सकता है। इसलिए जिसे लोक  मानसिकता बनाने की छूट है, उसे नियंत्रित भी करना पड़ेगा। आत्मनियंत्रण से यदि यह काम चले तो उसका स्वागत ही किया जाएगा। लेकिन प्रश्न यह है कि मीडिया कहीं दूसरे स्वार्थों से तो प्रेरित नहीं हो रहा है? क्या उसे अनुचित, अवैध और समाज विरोधी स्वार्थों की स्वतंत्रता देना उचित होगा। मीडिया का संचालन तो व्यक्ति के ही हाथों में होगा, इसलिए उसे सोच, विचार और चिंतन की स्वतंत्रता आवश्यक है। लेकिन यह स्वतंत्र चिंतन प्रक्रिया कैसे प्रभावित होती है, इसे बनाए  रखना भी तो राज्य का दायित्व है।”  हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता हो , जब यहाँ की प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक वर्ग में भ्रामक और गुमराहकुन ख़बरें , रिपोर्टें या अन्य सामग्रियां न प्रकाशित – प्रसारित होती हों | अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ ऐसा ही माहौल बना हुआ है | मीडिया का बड़ा वर्ग एक तरह से न्याय और इंसाफ़ को भूल चुका है | वह मीडिया को अपने घिनौने हित साधन का उपकरण मात्र समझता है | इस प्रजाति की मीडिया की हरकतें देश और समाज की छवि बुरी तरह बिगाड़ने की रही है | कठपुतली मीडिया ग़लत को सही ठहराने के लिए भी लामबंद रहती है | आज मीडिया की हालत है कि सारे अपराध करो और बचे रहो ! इसका यह स्वेच्छाचार देश के लोकतंत्र के लिए बड़ा ख़तरा है |

  • Dr R P Srivastava, Editor-in-Chief, Bharatiya Sanvad

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