अब भी खूब खिलता है

मेरे आंगन का लाल गुलाब

याद दिलाता है

पिताश्री का

जो इसके बानी थे

और

मेरे भी…

उस समय मैं नहीं था

जब उन्होंने लगाई थी

दशकों पहले

इसकी कलम

गुलाब था

आज भी है

सदा सर्वदा रहेगा

क्योंकि गुलाब के बिना जीवन नहीं

यह उसे भी पता है…

मानव जीवन की कल्पना

व्यर्थ है इसके बिना

चाहे यह काला ही क्यों न हो !

हे गुलाब !

बताओ, अब कैसा लगता है

जब मैं हूं

तुम्हें पकड़ लेता हूं समूल

मैं समझ सकता हूं तुमको

तुम क्या हो सर्वांग ?

लेकिन पहले मुझे जानना चाहिए कि

ईश्वर और मानव क्या हैं ?

गुलाब चुप है

चुपचाप ही रहता है सदा

उसका प्रयोजन है सदा !

…..

अब मैं डरता नहीं इससे

अब वह समय नहीं रहा डरने – डराने का

पिताश्री नहीं रहे

भय जाता रहा

अब मैं इसके फूल तोड़ सकता हूं

अस्तित्व में जा सकता हूं

इसके दिक – दिगंत में !

पिताश्री को भी इसका अधिकार था

गहरे प्रेम में डूबे जो थे

जहां सोते थे

पास में सदा रहता था

समूचा गुलाब

उसको पानी देते

उसके बूढ़े फूलों को काटते

बीजों को हटाते

साल में एक बार क्लीपिंग करते

नव – सृजन की रूपरेखा बनाते

उसमें उम्मीद जगाते

फिर जगने का स्वप्न दिखाते

सजग जीवन का उल्लास जगाते

किसी को तोड़ने न देते

एक फूल भी

कभी ख़ुद तोड़ते

वह भी एक – दो को

रख लेते

अपने बिस्तर पर सिरहाने…

सूखने पर गड़वाते

गड़हे में फेंकवाते

पैरों के नीचे नहीं पड़ने देते !

…..

कहते,

फूलों को देखना अच्छा लगता है

ईश्वर की याद दिलाते हैं ये

लोक ही नहीं

परलोक भी महकाते हैं ये

लाल गुलाब में कुछ ख़ास जीवन है

इससे मेरा प्रेम भी ख़ास है

लेकिन पंडित नेहरू जैसा नहीं

जो अपनी पत्नी की याद में निमग्न थे

शेरवानी पर लाल गुलाब लगाते थे

मेरा प्रेम नैसर्गिक है/ रूहानी है

दुनियावी / मायावी नहीं

विक्टोरियाई कवि अल्फ्रेड टेनिसन के फूलों की तरह

जहां से वे रूहानियत की खोज में निकलते थे

नन्हें फूलों से

ईश्वर

और

मानव के भेद समझते थे…

…..

सोचता हूं

क्या पिताश्री ने मुझे रूहानियत बख्शी ?

लाल गुलाब का फूल

उपहार देकर

कहा था,

” बेटा, यही है मेरा श्रेष्ठतम उपहार ”

सच है, यही सच है

मैं आज भी ज़िंदा हूं

इसी उपहार के साथ …

– राम पाल श्रीवास्तव ” अनथक ”

17 अक्तूबर 2022

( चित्र में पिता जी और उनका रोपा गुलाब का पौधा )

 

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